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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध पदस्थ ध्यान कहते हैं, किसी पद का ध्यान करना। इस प्रकार सामायिक की मूल साधना है मनोगुप्ति-स्वाध्याय। यह मनोगुप्ति की साधना कैसे करनी, इसी की विधि बताते हैं। - मूलम्-जीविए इह जे पमत्ता से हता, छेत्ता, भेत्ता, लुम्पित्ता, विलुम्पित्ता, उद्दवित्ता, उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा तं पुट्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा, तुमिंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा॥2/1/67
मूलार्थ-इस संसार में जो असंयत या असंयमी जीवन जीने वाला है, वह प्रमत्त कहा जाता है। प्रमत्त जीव ही अन्य जीवों को मारता है, उनका छेदन करता है, भेदन करता है, लूटता है, ग्रामादि का घात करता है, प्राणियों का नाश करता है
और उन्हें त्रास देता है। ऐसा प्रमत्त व्यक्ति यह मानता है कि आज तक जो काम किसी ने नहीं किया, वह मैं करूंगा। इस प्रकार मानता हुआ वह अर्थोपार्जन करने के लिए जीवों के हनन इत्यादि में प्रवृत्त होता है। ,
जिनके साथ वह निवास करता है, वे सम्बन्धी रोगादि से ग्रस्त हुए उसका पोषण करते हैं। तत्पश्चात् रोगादि से निवृत्त हुआ वह धनादि के द्वारा अपने उन संबन्धियों का भी पोषण करता है। अतः भगवान कहते हैं कि हे मनुष्य! पोष्य और पोषक एवं तेरे सम्बन्धी भी जरामरणादि से तेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे और न तू ही उनके त्राण एवं शरण के लिए समर्थ हो सकेगा।
समाज-संघटन का सूत्र
यहाँ 'परस्परोपग्रहो जीवानाम' का दर्शन होता है। पहले व्यक्ति परिवार का पोषण करता है, जिससे परिवार की वृद्धि होती है और परिवार के सभी सदस्य यथोचित्त भोगोपभोग को प्राप्त करते हैं, फिर जब वह पोषणकर्ता रोगग्रस्त हो जाता है तो सभी परिवारी जन उसका सहयोग करते हैं।
‘परस्परोग्रहो जीवानाम्' यह एक निरपेक्ष सूत्र है। परस्पर उपग्रह सहयोग पाप