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________________ अध्यात्मसार : 1 से यहाँ कई अपेक्षाएँ हैं । शुद्ध सामायिक तो है अपने स्वभाव में रहना, लेकिन साम्यभाव की भी अनेक अवस्थाएं हैं उत्तम है- 'संकल्प-विकल्प की विचलितता रहित शुद्ध वीतराग भाव से 'रमण' । यदि इस प्रकार दो घड़ी की निरन्तरता रहे, तब केवलज्ञान की उपलब्धि हो जाती है । इसके अतिरिक्त साम्यभाव की अनेक अवस्थाएं हैं । संकल्प - विकल्प की विचलितता के आधार पर ये सारे भेद हैं । यह इस प्रकार है जैसे पानी ठहर जाए और शांत हो जाए। किसी भी एक आलम्बन पर चित्त की स्थिरता छद्मस्थ अवस्था में दो घड़ी अधिक नहीं रहती । इस प्रकार दो घड़ी की सामायिक श्रावक के लिए अभ्यास रूप है । साधु के लिए तो प्रतिक्षण की सामायिक है। श्रावक की सामायिक साधुत्व का अभ्यास है। साधु के लिए प्रतिक्षण मनोगुप्ति है और कभी आवश्यक प्रवृत्ति भी करनी हो, तब भी वह समितिपूर्वक करे । सामायिक में श्रावक की साधना 297 1. स्वाध्याय - जैनत्व की झांकी, जैन तत्त्व प्रकाश आदि । 2. ध्यान - श्वास को देखना । 3. उँकार का उच्चारण एवं ध्यान । 4. प्रभु का नामस्मरण या नमस्कार मंत्र का जाप । 5. लोगस्स का काउस्सग । • 6. स्तुति - स्तोत्र, प्रार्थना - भजन इत्यादि । ध्यान और मनोगुप्ति की साधना : स्वाध्याय सामायिक का अर्थ है - साम्य भाव में स्थैर्य अथवा साम्यभाव की साधना । इन सभी आलम्बनों में भी मुख्य है ध्यान। इससे मन में जल्दी स्थिरता आती है, इससे मन की गति जल्दी ही अवरुद्ध होती है । कभी-कभी लगता है कि ध्यान में तो मन स्थिर नहीं रहता, लेकिन प्रार्थना, स्वाध्याय इत्यादि में मन लग जाता है । इसका कारण यह है कि प्रार्थना - स्वाध्याय आदि में आलम्बन बदलते रहने से मन में चंचलता का बोध नहीं होता, जबकि ध्यान में एक ही आलम्बन का आश्रय होने से मन में चंचलता 'बोध' तुरन्त हो जाता है। ऐसे देखा जाए तो जप भी अच्छा है । इसे हम 1
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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