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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
दुःख का एक ही कारण : अज्ञान
अज्ञानवश दुःख है। ज्ञान आ जाए तब आनंद है। इसलिए धर्म छोटी-छोटी तकलीफों को दूर करने के लिए नहीं है । धर्म तो है कि अज्ञान का परिहार कैसे हो, बिना ज्ञान मिले आज यदि सुख आ भी गया, तब वह कल पुनः दुःख रूप हो जाएगा। मूलतः सुख का एक ही कारण है, ज्ञान और दुःख का कारण है, अज्ञान । संसार का कारण है कर्म और कर्म का कारण है कषाय और कषाय का कारण है अज्ञान। ज्ञान होते ही चित्त शांत हो जाएगा और वह ज्ञान है, आत्मबोध। उस आत्मबोध हेतु जो मार्ग है, उसीको हम व्यवहारनय से धर्म कहते हैं । निश्चय में आत्म- रमण करना ही धर्म है।
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साधना
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कर्म कभी आत्मा को दुःखी नहीं कर सकते । कर्म तो पुद्गल हैं और पुद्गल का प्रभाव पुद्गल पर पड़ता है, आत्मा पर नहीं । जैसे हमारे कर्म हैं, वैसे ही भगवान् के कर्म थे। अज्ञानी के भी कर्म का उदय होता है और ज्ञानी के भी । लेकिन एक व्यक्ति जो व्याकुल होता है, जिसका चित्त चंचल होता है और दूसरा व्यक्ति शान्त, समाधिस्थ, आनंदित रहता है। कर्म के उदय से आसपास की परिस्थितियाँ शरीर की अवस्था और मन के विचार बदलते हैं । लेकिन सबके उदय होते हुए भी हम समाधि में रहें, इन सबसे अप्रभावित रहें, यही साधना है । बाह्याचार इस समाधि अवस्था में रहने हेतु हमें सहयोग देता है, एक वातावरण देता है । आभ्यंतर साधना हमारी समाधि को परिपुष्ट और बलवान बनाती है। इस प्रकार मूल बात है किसी भी प्रकार के संयोगों से प्रभावित नहीं होना । लेकिन यदि साधना निरन्तर चलती रही तो स्वयमेव ये लक्षण प्रकट होंगे। जैसे सम्यग् दर्शन लक्षण हैं- सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्था। यह सब प्रकट कब होगा, सोचने-विचारने से नहीं, अपितु साधना से होगा, क्योंकि साम्यभाव हमारा शुद्ध स्वभाव है - जितना व्यक्ति साम्यभाव
पुष्ट होगा, उतना ही ज्ञान भी प्रकट होगा । इसी को भगवान ने सामायिक कहा, अर्थात् स्व में स्थित रहना ।
सामायिक - श्रावक के लिए दो घड़ी की सामायिक अभ्यास के लिए हैं । सामायिक