________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
आशा अज्ञानस्वरूप है । भ्रम है । जब आशा होगी, तब आसरा या सहारा भी होगा, अर्थात् जो मेरी आशा पूरी करेगा, वही मेरा आसरा है, सहारा है ।
300
तो क्या फिर मोक्ष की भी आशा नहीं रखनी चाहिए ? यह एक अस्वाभाविक प्रश्न है, क्योंकि मुमुक्षा कर्मों के क्षयोपशम से जागने वाला क्षायोपशमिक भाव है और आशा कर्मों के उदय से जागने वाला भाव है। आशा चित्त की चललता का आगमन है। मुमुक्षा-चित्तस्थैर्य का प्रतीक है। जैसे पहले एक शब्द आया 'दुगछणाए' अर्थात् आरंभ-समारंभ से स्वाभाविक निवृत्ति | इस प्रकार आत्मस्वरूप के प्रति वीतरागता के प्रति, योग स्थैर्य के प्रति रही हुई स्वाभाविक वृत्ति को मुमुक्षा कहते हैं । पूर्व में दिया गया शूकर का दृष्टान्त देखें।
मुमुक्षा केवल बौद्धिक संकल्प - विकल्प या विचार मात्र नहीं है । बौद्धिक चिन्तन और विचार सहयोगी बन सकते हैं। लेकिन वह मुमुक्षा का मूल स्वरूप नहीं है । जैसे सम्यक् दृष्टि बनने पर सम-संवेग इत्यादि लक्षण प्रकट होते हैं । इसमें जो संवेग हैं वह मुमुक्षा है। जीव को स्वयमेव जीवन के सम्यक् तत्त्वों में रुचि आ जाती है । मुमुक्षा भी सभी की एक जैसी नहीं होती । जितनी - जितनी सम्यक्त्व एवं मोहकर्म की विशुद्धि होगी, उतनी ही मुमुक्षा तीव्र होगी। निश्चय में तो आत्मबोध होने पर व्यक्ति की रुचि जो पौद्गलिक आनंद से हटकर आत्मिक आनंद में जुड़ जाती है, उसे ही मुमुक्षा कहते हैं। समाधिमरण के मनोरथ से भी मुमुक्षा में सहयोग मिलता है।
सिद्धा सिद्धि मम दिसन्तु का अर्थ - ऐसे तो इसके अनंत अर्थ हैं । 1. सिद्ध भगवान मुझे भी की तरह सिद्धगति मिले, 2. मुझे सिद्धगति का मार्ग मिले, 3. इस मार्ग पर सदा ही दृढ़तापूर्वक चलता रहूँ । -
प्रश्न - जब अरिहंत के नाम में सभी तीर्थंकरों का समावेश हो जाता है, तब लोगस्स में सभी तीर्थंकरों के नाम को अलग-अलग क्यों दिया ?
ऐसे तो सिद्धों में सभी आ गये, क्योंकि सभी को सिद्ध होना है चाहे वह पंचपरमेष्ठी में से कोई भी हो; फिर भी हम व्यवहार दृष्टि से अलग-अलग वंदन करते हैं। जैसे आपने किसी पर उपकार किया, तब वह आपके प्रति कृतज्ञता दर्शाता है । स्वरूप दृष्टि से तो सभी एक जैसे ही हैं, फिर भी व्यवहार दृष्टि से हम भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार अरिहंत में सभी तीर्थंकरों का समावेश हो जाता है; फिर भी व्यवहार