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अध्यात्मसार:।
मूलम्-सोयपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, चक्खुपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, घाणपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, रसणापरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, फासपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं अभिक्कं च खलु वयं स पेहाए तओ से एगदा मूढभावं जणयंति॥2/1/64॥
. मूलार्थ-पाप-कार्यों में सदा प्रवृत्तमान जीव श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्श इन्द्रिय जन्य परिज्ञान के हीन हो जाने तथा यौवनवय के व्यतीत हो जाने पर एवं वृद्धावस्था में प्रविष्ट होते ही मूढ़भाव को प्राप्त हो जाता है।
वृद्धावस्था में मनुष्य की जो दशा होती है, यहां उसका वर्णन है। अनेक साधु-साध्वी जिनमें कई विद्वान होते हैं और जिन्हें अनेक आगमों का ज्ञाता कहा जाता है, वृद्धावस्था में वे भी मूढभाव को प्राप्त होते हैं। इसका क्या कारण है? ___ यहाँ जो वर्णन है, वह ऐसे व्यक्ति का है, जो गृहस्थ है और जो घर एवं परिवार के बीच रहता है। और उसे मतिभ्रम एवं मूढ़भाव होता है। लेकिन जिन्होंने घर-परिवार इत्यादि के त्याग का संकल्प लिया है, ऐसे साधु-साध्वीजनों की ऐसी दशा क्यों होती है-इसका मूल कारण है-मनोगुप्ति की साधना का अभाव। जिसने बाह्य चारित्र का पालन तो किया, परन्तु आन्तरिक साधना के अभाव में, समाधिमरण योग्य, चित्त उपशान्ति योग्य कषायों का उपशमन रूप योग्य स्थैर्य उपलब्ध नहीं हुआ। केवल द्रव्यश्रुत इतना सहयोगी नहीं बनता, भावश्रुत का जागरण आवश्यक है। द्रव्यश्रुत भावश्रुत के जागरण का आधार तो है, पर भावश्रुत का जागरण तभी होता है, जब बाह्य आचार के साथ आभ्यंतर साधना भी हो। वस्तुतः मनोगुप्ति ही भावश्रुत को जगाती है, वही मूल है।
इसीलिए भगवान ने कहा-जब तक इन्द्रियाँ क्षीण न हो जाएं, व्यक्ति को साधना में लीन हो जाना चाहिए।
धर्म क्या है? कैसे हम स्वभाव में स्थिर हो जाएँ, कैसे हम मन को साध लें? धर्म