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________________ 292 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध लक्ष्य है। या यों कह सकते हैं कि जिस साधना से आत्मा का हित हो उसी का नाम आत्मार्थ है। इस अपेक्षा से भी रत्नत्रय ही आत्मा के लिए हितकर हैं, क्योंकि इनकी साधना से ही आत्मा कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो सकता है। ___ इसके अतिरिक्त 'आयट्ठ' का संस्कृत रूप 'आयतार्थं' भी बनता है। आयत का अर्थ होता है-ऐसा स्वरूप जिसकी कभी समाप्ति न हो। आयत मोक्ष को कहते है, अतः मोक्षप्राप्ति के लिए जो साधना की जाए उसे 'आयार्थं' कहते हैं। इस अपेक्षा से भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय की साधना को ही स्वीकार किया गया है। ... अस्तु, निष्कर्ष यह निकला कि शरीर की स्वस्थता एवं इन्द्रियों में शक्ति रहते. हुए साधक को संयम-साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए। उसे विषय-वासना, धन एवं परिजनों की आसक्ति का त्याग कर आत्मसाधना में प्रवृत्त होना चाहिए। इसीसे आत्मा लोक पर विजय प्राप्त कर पूर्ण सुख-शान्ति-रूप निर्वाण को पा सकेगा। 'त्तिबेमि' का अर्थ प्रथम अध्ययन की तरह समझना चाहिए। ॥प्रथम उद्देशक समाप्त
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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