SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 294 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध का मूल है, मनोगुप्ति की साधना। यदि यह साधना इन्द्रियों के बलवान रहते हो गयी तब जाकर बुढ़ापे में यह अवस्था, मूढ़ता, मतिविभ्रम इत्यादि नहीं आते। जो मनोगुप्ति की साधना करता है, वही सच्ची संलेखना एवं समाधिमरण को उपलब्ध हो सकता है। यही राजमार्ग है। अपवाद रूप से कभी-कभी प्रबल पुण्य के उदय से अन्तिम समय समाधिमरण की प्राप्ति होकर गति सुधर जाती है। इस प्रकार समाधिमरण का राजमार्ग है, मनोगुप्ति और अपवाद है पुण्योदय। इस प्रकार मूल में है। आभ्यंतर साधना उसी के सहयोग हेतु बाह्य आचार आवश्यक है। .. जीवनभर यदि मन को साधा न हो, तब अन्तिम समय उत्तर अवस्था में यह सब करना मुश्किल है। इसलिए व्यक्ति को जिस मार्ग पर भी चलना हो पूर्णतया । समर्पित होकर चलना चाहिए। यदि साधु भी बनें तो उच्चतम और यदि श्रावक भी बनें तो उच्चतम। अगर छल-कपट करोगे तो कहीं के भी न रहोगे। इसलिए धर्म रूपी रत्न ऐसे ही किसी को नहीं दिया जा सकता। फिर व्यक्ति का मन कहीं भी नहीं लगता। निश्चित ही साधु-धर्म उत्तम है, लेकिन वैसी योग्यता भी चाहिए, मूल में व्यक्ति की साधना चाहिए, साधना भी बिना काल के परिपक्व नहीं होती। साधना करे तो परिवर्तन भी हो सकता है। सत्य, सत्य होता है। सत्य का.सामूहिक होना आवश्यक नहीं है, वह सामूहिक हो भी सकता है और नहीं भी। मूढभाव क्यों होता है? क्योंकि आत्मबोध होता नहीं और आत्मबोध के अभाव में जब इन्द्रियाँ शिथिल होती हैं, तब इन्द्रियों के माध्यम से होने वाला ज्ञान भी विभ्रमयुक्त हो जाता है। ___ऐसे विभ्रमयुक्त ज्ञान की अवस्था में व्यक्ति सोचता कुछ है और करता कुछ है। उसके आचरण मन-वचन एवं काया की क्रियाओं में विसंगति एवं असंबद्धता उत्पन्न हो जाती है। जैसे यह शरीर है, युवावस्था में बल रहने पर तुम कोई अस्वास्थ्यपूर्ण आचरण या शरीर धर्म के विरुद्ध कोई कार्य भी करो तो शरीर उसे सह लेता है। लेकिन वृद्धावस्था में शरीर फिर निर्बल होने पर अनेक प्रकार की तकलीफें चालू होती हैं। जैसे किसी व्यक्ति के दस मालिक हों, कोई ऊपर की दिशा में, कोई नीचे की तरफ, कोई दायें, कोई बायें और सभी व्यक्ति उसे एक साथ बुलाएं और यदि वह न
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy