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डांवाडोल हो रहा है, उस समय अपवाद मार्ग उसके लिए स्वस्थान है, श्रेयस्कर है। यदि ऐसी स्थिति में वह अपवाद मार्ग पर न चलकर उत्सर्ग पर चलने का ही हठ रखता है तो उसकी साधना में पूर्ण विशुद्धता नहीं रह पाती। इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि साधक को अपनी योग्यता के अनुसार परिस्थितिवश अपवाद मार्ग का अवलम्बन लेना पड़े तब भी वह साधना-पथ से च्युत नहीं होता है, उसके महाव्रतों का भंग नहीं होता है। क्योंकि उत्सर्ग की तरह अपवाद भी साध्य को सिद्ध करने का मार्ग है और उस मार्ग पर चलने की भी वीतराग (तीर्थंकर) भगवान की आज्ञा है। और आज्ञा में प्रवृत्ति करना धर्म है।
नियुक्तिकार ने यह स्पष्ट कर दिया है आगम में उत्सर्ग और अपवाद दोनों तरह के सूत्र मिलते हैं। साधक के लिए दोनों मार्गों का अवलम्बन लेने की आज्ञा दी गई है। अतः दोनों ही मार्ग अपने स्थान पर श्रेयस्कर हैं और दोनों मार्गों का अवलम्बन लेकर ही साधक अपने साध्य को सिद्ध करता है। अतः उत्सर्ग के द्वारा अपवाद प्रसिद्ध है और अपवाद के द्वारा उत्सर्ग प्रसिद्ध है। दोनों ही समान बल वाले हैं, इनमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है। ..
सूत्र का लक्षण
'सूत्र' शब्द की परिभाषा करते हुए नियुक्तिकार ने लिखा है कि “जो अक्षर-संख्या में अल्प और अर्थ से महान एवं विराट हो तथा बत्तीस दोषों से रहित एवं आठ गुणों से संयुक्त हो उसे 'सूत्र' कहते हैं।” प्रस्तुत गाथा में उल्लिखित “थोड़े शब्दों में विस्तृत अर्थ को व्यक्त करने वाला सूत्र कहलाता है।” यह सूत्र का लक्षण है और “वह 32 दोषों से रहित एवं अष्ट गुणों से युक्त है।" यह अंश उसकी विशेषता को प्रकट करता है।
कुछ विद्वानों का कहना है कि नियुक्ति में सूत्र के जिन 32 दोषों एवं अष्ट गुणों का उल्लेख मिलता है, वह नियुक्तिकार का अपना अभिमत है, मूल आगमों में इस 1. आणाए धम्म।
-आचारांग सूत्र 2. बृहत्कल्प नियुक्ति गाथा 319-323 3. अप्पग्गन्थ महत्थं बत्तीसा दोस निरहियं जं च। लक्खण जुत्तं सुत्तं, अट्ठगुणेहिं उववेयं॥
-बृहत्कल्प नियुक्ति 324