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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
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ज्वर, कुष्ठ, तपेदिक आदि साध्य - असाध्य रोग । समुप्पज्जंति - उत्पन्न हो जाते हैं, तब । जेहिं - जिनके । सद्धिं साथ में । संवसइ - सम्यक्तया निवास करता है वा - परस्पर समुच्चय के लिए। ते वा - वे ही । एगया - एक दिन रोगोत्पत्ति काल में। नियगा—उसके संबंधी। पुव्विं परिहरन्ति - पहले ही छोड़ देते हैं। वा-अथवा । सो- - वह । ते नियगे- उन परिजनों को । पच्छा परिहरिज्जा - पीछे छोड़ देता है । ते - वे परिजन । तव - तेरे | ताणाय - त्राण के लिए । वा - अथवा । सरणाए - शरण देने के लिए। नालं - समर्थ नहीं होते । वा - परस्पर सापेक्ष अर्थ का बोधक है । तुमंप - तू भी । तेसिं- उनके । ताणाए - त्राण के लिए । वा - अथवा । सरणाए - शरण के लिए। नालं- समर्थ नहीं हैं । वा - पूर्ववत् ।
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मूलार्थ - लोग अपने असंयत पुत्र, पौत्र आदि के लिए उपभोगावशिष्ट तथा अनुपभुक्त धन संभाल कर रखते हैं, किन्तु पुत्र आदि अन्तराय कर्म के उदय के कारण उस धन का उपभोग नहीं कर पाते।
असातावेदनीय कर्म के उदय से जब जीवों को रोग अक्रान्त कर लेते हैं, तब उनके साथ वाले साथी साथ नहीं देते, उन्हें छोड़कर अलग हो जाते हैं । साथियों की इस स्वार्थमयी वृत्ति से खिन्न हुए दूसरे जीव भी अपने स्वार्थी सम्बन्धियों को, साथियों को छोड़ देते हैं, उनसे विरक्त हो जाते हैं ।
भगवान कहते हैं कि हे शिष्य ! मृत्यु की घड़ी में तेरे संबन्धी साथी तेरी रक्षा करने में तुझे शरण - सहारा देने में असमर्थ हैं । तू भी मृत्यु वेला में उनका त्राण नहीं कर सकता, न उन्हें शरण दे सकता है ।
हिन्दी - विवेचन
मोह कर्म के उदय से प्रमादी प्राणी पर - पदार्थों में आसक्त रहते हैं । उन्हें अपने सुख का साधन एवं विपत्ति में सहायक के रूप में समझते हैं । इसलिए वे जीवन में धन-वैभव आदि को महत्त्व देते हैं और उसके संग्रह में रात-दिन लगे रहते हैं तथा अनेक प्रकार के पाप कार्य करते हुए भी संकोच नहीं करते। वे समझते हैं कि यह धन मेरे एवं मेरे पुत्र-पौत्र आदि के भोगोपभोग के काम आएगा, उनके लिए सुख का कारण बनेगा। परन्तु वे यह नहीं सोचते कि जब एक खून के संबंध में आबद्ध