________________
286
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
परिजन भी एक-दूसरे को शरण नहीं दे सकते, तब यह जड़ द्रव्य उनका सहायक कैसे होगा?
यही बात प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट रूप से समझाई गई है। सूत्रकार ने बताया है कि धन का प्रभूत संचय किया हुआ है, परन्तु वेदनीय कर्म के उदय से असाध्य रोग ने आ घेरा तो उस समय वह धन एवं वे भोगोपभोग साधन उसका ज़रा भी दुःख हरने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। धन-वैभव को सनाथता एवं श्रेष्ठता का साधन मानने वाले पूंजीपतियों एवं सम्राटों की सनाथता को चुनौति देते हुए श्री अनाथी मुनि ने मगधाधिपति श्रेणिक को भी अनाथ बताया था, यह पूंजीवाद पर एक सबल व्यंग्य था। परन्तु इसमें सच्चाई थी, वास्तविकता थी। अनाथी मुनि ने वैभव की निस्सारता का चित्र उपस्थित करते हुए सम्राट श्रेणिक से कहा था कि हे राजन्! मेरे पिता प्रभूत, धन-ऐश्वर्य के स्वामी थे, भरापूरा परिवार था। सुशील, विनीत एवं लावण्यमयी नवयौवना पत्नी थी परन्तु उस समय मेरे शरीर में दाह-ज्वर उत्पन्न हो गया। दिन-रात ज्वर की आग में जलता रहा; मैं ही नहीं मेरा सारा परिवार आकुल-व्याकुल हो गया, पत्नी रात-दिन
आंसू बहाती रही, पिता ने मेरी वेदना को शांत करने के लिए धन को पानी की तरह बहाना आरम्भ कर दिया, फिर भी हे राजन्! वह धन, वह परिवार मेरी वेदना को शांत नहीं कर सका, मुझे शरण नहीं दे सका, इसलिए मैं उस समय अनाथ था। मैं ही नहीं, भोगों में आसक्त सारा संसार ही अनाथ है, क्योंकि ये भोग दुःख एवं संकट के समय किसी के रक्षक नहीं बनते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “उवाइयसेसेण" शब्द की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है-“अद्भक्षणे, इत्येतस्मादुपपूर्वानिष्ठा प्रत्ययः, तत्र बहुलं छन्दसीतीडागमः, उपादि तम्-उपमुक्तं, तस्य शेषमुपभुक्तशेषं, तेन वा, वा शब्दादनुपभुक्तशेषेण वा” अर्थात्-उप पूर्वक अद् भक्षणे धातु से 'क्त' प्रत्यय किए जाने पर 'बहुलं छन्दसि' इस सूत्र से इट् का आगम कर देने से 'उपादित-उवाइय' रूप सिद्ध हो जाता है। और उसका अर्थ होता है-उपभुक्त-उपभोग में आए हुए धन में से अवशिष्ट-शेष बचा हुआ जो अब तक भोगने में नहीं आया है।
'संनिहिसंनिचयो' पद का अर्थ है-“सम्यग् निधीयते अवस्थाप्यते उपभोगाय
1. उत्तराध्ययन सूत्र, 20, 19-30