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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध और न ऐसे समय में वह भी अपने परिजनों का सहयोगी बन सकता है । अतः इसका निष्कर्ष यह निकला कि संसार में कोई भी व्यक्ति किसी को शरण नहीं दे सकता है । 284 प्रस्तुत सूत्र में प्रमादी व्यक्तियों के लिए एक वचन का प्रयोग किया है। इसका कारण यह है कि प्रमत्त जाति सामान्य की अपेक्षा से सभी प्रमादी व्यक्तियों का एक ही जाति के रूप में वर्णन किया गया है । व्यवहार में भी हम जाति विशेष के लिए. एक वचन का भी प्रयोग करते हैं । इससे स्पष्ट हो गया कि काल की कराल चपेट से कोई भी व्यक्ति बचाने में समर्थ नहीं है। उस समय परिवार भी उससे किनारा कर लेता है । ऐसी स्थिति में धन-वैभव उसके क्या काम आ सकता है? जब चेतन व्यक्ति भी उसे काल से बचाने में समर्थ नहीं है, तो जड़ द्रव्य उसे क्या सहारा दे सकता है ? अथवा कुछ भी सहारा नहीं दे सकता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम् - उवाइयसेसेण वा संनिहिसंनिचयो किज्जई, इहमेगेसिं असंजयाण भोयणाए, तओ से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा तं पुव्वि परिहरति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा ॥68॥ छाया - उपादित शेषेण वा संनिधिसन्निचयः क्रियते इहैकेषामसंयतानां भोजनाय, क्रियते ततः तस्य एकदा रोगसमुत्पादाः समुपपद्यन्ते, यैः वा सार्द्धं संवसति त एकदा निजकाः तं पूर्वं परिहरन्ति स वा तान्निजकान् पश्चात् परिहरेत्, नालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा । पदार्थ–उवाइयसेसेण- उपभोग व्यय करने के पश्चात् जो अवशेष बचा हुआ। वा-अथवा उपभोग में नहीं आया हुआ जो धन है, उसका । इहं - इस संसार में। गेसिं- कई एक । असंजयाण - असंयत व्यक्तियों के । भोयणाए - उपभोग के लिए। संनिहिं-संग्रह और । संनिचयो - संचय । किज्जई - किया जाता है, परन्तु । तओ-संग्रह करने के पश्चात् । से- उसको । एगया - किसी समय । रोग - समुप्पाया -
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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