________________
द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
283
भी। तेसिं-उनके। ताणाए-त्राण के लिए। वा-अथवा सरणाए-शरण के लिए। नालं-समर्थ नहीं है। वा-यह शब्द पारस्परिक अपेक्षा का द्योतक है।
मूलार्थ-इस संसार में जो जीव असंयमय जीवन व्यतीत करने वाला है, वह प्रमत्त कहा जाता है। प्रमत्त जीव ही अन्य जीवों को मारता है, छेदन करता है, भेदन करता है, लूटता है, ग्रामादि का घात करता है, प्राणियों का नाश करता है, त्रास देता है। आज पर्यन्त जो काम किसी ने नहीं किया, वह मैं करूंगा, इस प्रकार मानता हुआ अर्थोपार्जन करने के लिए जीवों के हनन आदि में प्रवृत्त होता है।
जिनके साथ वह निवास करता है, वे सम्बन्धी रोगादि से ग्रस्त हुए उसका पोषण करते हैं। तत्पश्चात् रोगादि से निवृत्त हुआ वह धनादि के द्वारा उन अपने सम्बन्धियों का भी पोषण करता है तथा भगवान कहते हैं कि हे मनुष्य! पोष्य और पोषक व तेरे सम्बन्धी भी जरामरणादि से तेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे
और न ही तू उनके त्राण और शरण के लिए समर्थ हो सकेगा। . हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में असंयमी, विषयाभिलाषी एवं प्रमत्त व्यक्तियों के जीवन का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति अपने भोगोपभोगों के साधनों को जुटाने के लिए अनेक प्राणियों का छेदन-भेदन करते हैं एवं अनेक प्राणियों के धन-वैभव पर हाथ साफ करते हैं। इस प्रकार वे लूट-खसूट एवं छल-कपट आदि विभिन्न उपायों से प्राणियों को त्रास देकर भोग-विलास में संलग्न रहते हैं। उनके इस कार्य में परिजन भी सहयोगी बन जाते हैं। जब वह व्यक्ति बीमार या कार्य करने में असमर्थ हो जाता है, तो वे परिजन उसका पोषण करते हैं। क्योंकि उसके सहारे पर ही इनका भोग-विलास चलता है। इसलिए वे उसे स्वस्थ बनाने के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयत्न करते हैं। और वह प्रमादी व्यक्ति भी रात-दिन उनका पोषण करने में लगा रहता है। इस प्रकार परस्पर सहयोग के द्वारा एक-दूसरे के पाप कार्यों को प्रोत्साहन देते हैं। परन्तु जब मृत्यु सिर पर आकर खड़ी होती है, उस समयं संसार का कोई भी व्यक्ति उसकी रक्षा नहीं कर सकता और न उसे अपनी शरण में लेकर मृत्यु के भय से मुक्त या निर्भय ही कर सकता है। उस समय में उस प्रमादी व्यक्ति के परिजन उसकी तनिक भी सहायता नहीं कर पाते हैं