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________________ 282 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध प्रवृत्त होकर जीवन के सुनहरे समय को यों ही बर्बाद कर देते हैं। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-जीविए इह जे पमत्ता से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुम्पित्ता, विलुम्पित्ता, उद्दवित्ता, उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वा णं एगया नियगा तं पुट्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसिज्जा, नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा, तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा॥67॥ छाया-जीविते इह ये प्रमत्ताः, स हन्ता, छेत्ता, भेत्ता, लुम्पयित्ता, विलुम्पयित्ता, अपद्रावयित्ता, उत्त्रासयित्ता, अकृतं करिष्यामीति मन्यमानः यैः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजका तं पूर्वमेव पोषयन्ति स वा तान्निजकान् पश्चात् पोषयेत् । नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा, त्वमपि नालं त्राणाय वा शरणाय वा। पदार्थ-इह-इस संसार में। जीविए-असंयम जीवन में। जे-जो। पमत्ताप्रमत्त है। से-वह-असंयत व्यक्ति। हंता-जीवों को मारता है। छेत्ता-भेत्ता-जीवों के अंगोपांग का छेदन-भेदन करता है। लुपिता-ग्रंथि आदि काटता है। विलुपित्ता-पूरे परिवार या गांव आदि की घात-हत्या करता है। उद्दवित्ता-विष या किसी शस्त्र से जीवों की हत्या करता है। उत्तासइत्ता-पत्थर आदि मारकर प्राणियों को संत्रस्त करता है। अकडं करिस्सामित्ति-धन-ऐश्वर्य एवं सुख-साधनों को प्राप्त करने के लिए वह काम मैं करूंगा जो कार्य अन्य किसी ने न किया हो। मण्णमाणे वा-ऐसा मानता हुआ वह उस हिंसाजन्य कर्म में प्रवृत्त होता है। जेहिं-जिनके। सद्धिं-साथ। संवसइ-रहता है। ते वा-वे व्यक्ति ही। णं-वाक्यालंकार अर्थ में। एगया-धन-संपत्ति के नाश होने पर। नियगा-स्वजन-स्नेही। पुट्विं-पहले ही। तं-उसको। पोसेंति-पोषण करते हैं। वा-अथवा। सो-वह। ते-उन। नियगेपरिजनों को। पच्छा-पश्चात्। पोसिज्जा-पोषण करता है, किन्तु। ते-वे। तव-तेरे। ताणाए-आपत्ति से बचाने के लिए। वा-अथवा। सरणाए-भय रहित करने के लिए। नालं-समर्थ नहीं हैं। वा-यह परस्पर अपेक्षा का द्योतक है। तुमंपि-तू
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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