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________________ द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1 यह हम देख चुके हैं कि वृद्धावस्था में शरीर एवं इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। उस समय जीवन संबन्धी अनेक चिन्ताएं एवं अनेक मानसिक और शारीरिक व्याधियां उसे दबा लेती हैं, ऐसे समय में उसका मन चिन्तन-मनन एवं धर्मसाधना में लगना कठिन है। उस समय वह जीवन की चिन्ताओं के बोझ से इतना दब जाता है कि उसके अतिरिक्त उसे कुछ सूझता ही नहीं। इसलिए सर्वज्ञों ने मानव को सावधान करते हुए कहा है कि उसे धर्म एवं साधना करने के लिए समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि किसे पता है कि कौन सा समय, कौन सा क्षण उसके लिए काल के रूप में आ उपस्थित हो। अतः मनुष्य को आने वाले प्रत्येक समय को काल का, मृत्यु का दूत समझ कर उसे सफल बनाने में प्रत्यनशील रहना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में इसी मूल स्थान की ओर निर्देश किया गया है कि उसे पूर्व जन्म के पुण्य एवं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षयोपशम से जो आर्य क्षेत्र, शुद्ध आचारयुक्त कुल एवं सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप धर्म साधन उपलब्ध हुए हैं, आत्म विकास में उनका उपयोग करने में उसे प्रमाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि यौवन एक तरह से कल्पवृक्ष है, वह सब कामनाओं को पूरी करने में समर्थ है। इससे अर्थ और काम रूप विष भी प्राप्त किया जा सकता है और धर्म एवं मोक्ष रूप अमृत भी और दोनों के परिणाम दुनिया के सामने हैं। बुद्धिमान व्यक्ति वही है, जो विष की ज्वाला से अपने आपको बचाते हुए धर्म पथ पर गति करता है। यदि कभी वह अर्थ और काम के पथ पर बढ़ता है, तब भी धर्म और मोक्ष की भावना को साथ लेकर गति करता है, यों कहना चाहिए कि उसका भोग त्याग प्रधान होता है। काम की अंधेरी गुफा में भी धर्म एवं त्याग का प्रकाश लेकर प्रविष्ट होता है, तो वहां भी मार्ग पा लेता है। अस्तु, इस यौवन के सुनहरे क्षणों को व्यर्थ न खोकर मनुष्य को अप्रमत्तभाव से धर्म में संलग्न रहना चाहिए। - आत्मज्ञान का प्रकाश मनुष्य को इधर-उधर की ठोकरों से बचाता है। जो व्यक्ति आत्मज्ञान से शून्य होकर काम-वासना में संलग्न रहते हैं, वे विषय-वासना के बीहड़ एवं भयावने जंगल में भटक जाते हैं। वे पथभ्रष्ट व्यक्ति अनेक दुष्प्रवृत्तियों में 1. जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे॥ ...दशवैकालिक सूत्र, 8/36,
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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