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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
इसलिए नहीं करना चाहिए, क्योंकि। वओ-बाल्य काल। अच्चेई-बीत रहा है, और। जोव्वणं-यौवन भी बीत रहा है।
मूलार्थ-इस प्रकार त्राण एवं शरण का सम्यक्तया विचार करके मुमुक्षु पुरुष को संयमानुष्ठान के लिए उद्यत होना चाहिए, क्योंकि बाल्य एवं यौवन काल निरंतर बीत रहा है, इसलिए संयम में मुहूर्त मात्र भी, अर्थात् थोड़ा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। हिन्दी-विवेचन
जीवन परिवर्तनशील है, प्रवाहमय है। वह सदा एक-सा नहीं रहता है। प्रायः चिन्ताओं, उलझनों से युक्त, सहज, स्वाभाविक और सुखद बाल्यकाल एवं यौवन का सुनहरा प्रवाह बह निकलता है और बुढ़ापे की कालिमा उसे आ घेरती है। अतः उस समय कोई भी स्नेही-साथी उसके दुःख को दूर करने या बंटाने में समर्थ नहीं होता। इस बात को सम्यक्तया जानकर, समझकर विवेकशील व्यक्ति को धर्म एवं साधना पथ पर गति करने में ज़रा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। ___इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जीवन में धर्म ही एक मात्र सहायक है। क्योंकि धर्म से पाप कर्मों का नाश होता है और ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की ज्योति प्रज्वलित होती है, चिन्तन-मनन में स्थिरता आती है, आचार में तेजस्विता आती है। इससे संकल्प-विकल्प का वेग कम होता है, आर्त्त-रौद्र ध्यान की धारा धर्मध्यान या शुक्ल ध्यान में बदल जाती है। इससे आत्मा में अपूर्व तेज एवं शक्ति की अनुभूति होती है
और आत्मा सारे दुःखों एवं वेदनाओं से ऊपर उठकर आत्मसुख के अनन्त आनन्दमय झूले में झूलने लगती है। दुःख की तपती दुपहरियों में भी वह आत्मसुख की शीतल, सरस, सघन एवं सुखद कुंज में विहार करती है। इसलिए कहा गया है कि मनुष्य को जीवन की अस्थिरता को भली-भांति जान कर वृद्धावस्था आने से पहले ही सावधान हो जाना चाहिए और जरा एवं मृत्यु के शत्रुओं को परास्त करने के लिए अहिंसा, सत्य आदि आध्यात्मिक शस्त्रों को प्रबल एवं तीक्ष्ण बनाने के लिए अनवरत जागृत रहना चाहिए अथवा संयम-साधना में क्षणमात्र के लिए भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
1. समय गोयम! मा पमायए।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 10