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द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
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दुःखों से निर्भय ही कर सकते हैं । यदि उसे कोई शरण देने वाला है, तो केवल एक धर्म है। धर्म की शरण में जाने के बाद फिर जरा और मरण का प्रवाह सूखने लगता है, अर्थात् वह उन दुःखों से मुक्त हो जाता है। इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि वह धन, यौवन, भोग-विलास एवं परिवार में आसक्त नहीं बने और अपने एवं पारिवारिक स्वार्थ को पूरा करने के लिए रात-दिन पाप कार्यों में प्रवृत्त न रहे।
प्रस्तुत सूत्र में अशरण भावना का वर्णन किया गया है। वृद्धावस्था का चित्र चित्रित करके यह बताया गया है कि संसार में दुःख एवं विपत्ति के समय कोई किसी को शरण नहीं देता। इसलिए व्यक्ति को उस समय आर्त्त रौद्र ध्यान में न पड़कर अपने आत्म-चिन्तन में लगना चाहिए और समय पर किसी की शरण में न जाना पड़े, इसके लिए पहले से ही सावधान होकर गति करनी चाहिए। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि पाप कार्य से सदा दूर रहना चाहिए, विवेक एवं संयम के साथ कार्य करना चाहिए। क्योंकि संयम एवं धर्म ही सच्चा साथी है, सहायक है एवं शरण देने वाला है।
परन्तु उन धर्मयुक्त व्यक्तियों का जीवन कैसा होना चाहिए? इसलिए उनके प्रशस्त आचरण का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम्-इच्चेवं समुट्ठिए अहोविहाराए अंतरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए वओ अच्चेति जोव्वणं व॥66॥
- छाया-इत्येवं समुत्थितः अहो विहाराय, अन्तरं च खलु इदं संप्रेक्ष्य धीरः मुहूर्तमपि नो प्रमाद्येत् वयोऽत्येति यौवनं च (अत्येति)।
पदार्थ-इच्चेवं-इस प्रकार। अहोविहाराए-संयम अनुष्ठान के लिए। समुट्ठिए-सम्यक् प्रकार से उद्यत होकर। इमं च खलु अंतरं-और इस अवसर को। संपेहाए-भली-भांति सोच-विचार कर। धीरे-धैर्यवान व्यक्ति को। मुहुत्तमविमुहूर्त मात्र भी। णो पमायए-प्रमाद नहीं करना चाहिए। व-अथवा, प्रमाद
1. दुःख एवं आपत्ति से बचाने को त्राण कहते हैं और अपनी शरण में लेकर उस दुःख
से निर्भय कर देने की स्थिति को शरण कहते हैं। 2. जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य, गइ सरणमुत्तमं॥
-उत्तराध्ययन, 23, 68