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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
वे परिजन चिंतित से हो जाते हैं । उसकी इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती हैं, शरीर जर्जरित हो जाता है, पर एक वस्तु अब भी क्षीण नहीं होती, बल्कि उसकी शक्ति अधिक प्रबल हो उठती है, वह है - तृष्णा, आकांक्षा, लालसा । इस अवस्था में भी उसकी अभिलाषा बढ़ती ही रहती है। आचार्य शंकर ने भी कहा है- “केश पककर के श्वेत हो गए, शरीर के सारे अंग जीर्ण शीर्ण एवं शिथिल हो गए, मुंह में एक भी दांत नहीं. रहा और लकड़ी के सहारे के बिना न खड़ा रह सकता है और न गति ही कर सकता है; फिर भी उसकी तृष्णा - आशा एवं अभिलाषा अभी भी शांत नहीं हुई, अपितु अपरिमित है। वह अभी भी तृष्णा की ज्वाला में जल रहा है । " 1
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वृद्ध की शारीरिक विकृत्तियों एवं आशा-आकांक्षाओं तथा खाने-पीने की नित्य. नई मांगों से परिजन घबरा जाते हैं और वे दुःखित मन से उसकी मरण-समय की प्रतीक्षा करते हैं । प्रतीक्षा ही नहीं, अपितु भगवान से प्रार्थना भी करते हैं कि इस बूढ़े को जल्दी उठा ले । इस प्रकार स्वार्थ समाप्त होते ही वह वृद्ध बोझ रूप प्रतीत होने लगता है । घर में उसका कोई विशेष आदर - सम्मान नहीं करता और न उसकी बात पर विशेष ध्यान ही दिया जाता है । अपने ही घर में अपनी यह स्थिति देखकर उसे दुःख एवं वेदना होती है । परन्तु परिजनों के सामने कुछ कहने का साहस नहीं होता और कहे भी तो उससे कुछ बनता नहीं । इसलिए वह उनके चले जाने के बाद उनकी निन्दा करके अपना दिल हल्का कर लेता है ।
इस तरह पाप में प्रवृत्तमान व्यक्ति वृद्धावस्था के आने पर दुःखी हो जाता है और आर्त्त-रौद्र ध्यान में संलग्न होकर संसार को और अधिक बढ़ा लेता है । परन्तु उस समय उसका कोई संरक्षक नहीं होता । न धन उसका संरक्षण कर सकता है और न परिवार ही । कुछ परिजन ऐसे भी मिल सकते हैं कि वे उसे बोझ रूप समझकर उसकी सेवा-शुश्रूषा करते हैं, उसे आदर-सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । परन्तु वे भी उसे वृद्धावस्था के दुःखों से बचा नहीं सकते और न उसे अपनी शरण में लेकर उन
1. अंगं गलितं पलितं मुण्डम्, दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डम्, तदपि न मुंचति आशा पिण्डम् ॥ भज गोविन्दं, भज गोविन्दम् ! भज गोविन्दं, मूढमते !! भज गोविन्दं ॥
- आचार्य शंकर रचित स्तोत्र, श्लोक 14