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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
सद्धिं-साथ । संवसति-रहता है । तेऽवि - वे पत्नी-पुत्र आदि । णं - वाक्यालंकार में। एगदा-वृद्धावस्था आने पर । णियगा -स्वजन -स्नेही । पुव्विं - जिनका पहले पालन-पोषण किया था वे । परिवयंति - उस वृद्ध का तिरस्कार करते हैं, उसके मरने की प्रतीक्षा करते हैं । सोऽवि - 1 - वह वृद्ध भी । ते यिए - उन संबन्धियों की । पच्छा-पीछे से। परिवएज्जा - निन्दा करता है, भले ही किसी कारण से स्वजन-संबन्धी. तिरस्कार न करे, तब भी । ते - से संबन्धी । तव - तेरे | ताणाए - त्राण के लिए । वा सरणाए - अथवा शरण के लिए । वा - परस्पर का बोधक है । णालं - समर्थ नहीं होते हैं, और । तुमंप - तू भी । तेसिं - उनके । ताणाए - त्राण के लिए। वा सरणाए-' अथवा शरण के लिए। णालं - समर्थ नहीं है । वा - पक्षान्तर में । से - वह वृद्ध । ण हासाय- न तो हास्य-विनोद करने योग्य रहता है । ण किड्डाए - न क्रीड़ा करने योग्य रहता है। ण रतीए - न भोग-विलास करने योग्य होता है । ण विभूसाए-न विभूषा करने योग्य होता है, वह परिजनों के साथ किसी भी तरह के सांसारिक आनन्द लेने योग्य नहीं रहता है, परिजनों के लिए वह एक तरह से निरर्थक हो जाता है।
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मूलार्थ - यह जीव जिन परिजनों के साथ रहता है और जिसने विभन्न पाप कार्यों में प्रवृत्त होकर परिवार का परिपोषण किया था, वही व्यक्ति जब वृद्ध हो जाता है, तो परिजन उसकी निंदा करने लगते हैं, तिरस्कार जन्य शब्दों का प्रयोग करते हैं और उनके कटु वचन एवं व्यंग्य सुनकर वह वृद्ध भी उनसे घृणा करने लगता है, उनके चले जाने के बाद पीछे से उनकी निंदा करता है । भले ही कोई परिजन निंदा या तिरस्कार न भी करे, तब भी उस वृद्धत्व के दुःख एवं संकट से कोई भी परिजन उसका त्राण करने, उसे शरण देने में समर्थ नहीं है और वृद्धावस्था में व्यक्ति हास्य-विनोद करने, क्रीड़ा - विभिन्न खेल खेलने, भोग-विलास करने एवं शृंगार - विभूषा करने के योग्य भी नहीं रह जाता है । वह किसी भी तरह के सांसारिक सुखोपभोग के योग्य नहीं रह जाता है।
हिन्दी - विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में वृद्धावस्था का सजीव चित्र उपस्थित किया गया है। इसमें बताया गया है कि जीवन सदा एक-सा नहीं रहता है । आयु में अनेक उतार-चढ़ाव आते