________________
द्वितीय अध्ययन, उद्देशक 1
अच्छी तरह देख लेते हैं, उनकी सुनने, सूंघने आदि की शक्ति में भी कमी दिखाई नहीं देती और कई युवक ऐसे भी देखे जाते हैं कि वे बिना ऐनक के देख ही नहीं सकते। अतः द्रव्य इन्द्रियों के शिथिल होने पर भी उनमें अपने विषय को ग्रहण करने की शक्ति क्षयोपशम पर आधारित है ।
275
यह हम पीछे के उद्देशकों में देख चुके हैं कि हिंसा एवं आरम्भ - समारम्भ में आसक्त रहने से पाप कर्म का बन्ध होता है । ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से आत्मा • आवृत होती है और फलस्वरूप इन्द्रियों में ग्रहण करने की शक्ति क्षीण हो जाती है और वह मूढ़ भाव को प्राप्त हो जाती है । हम यह स्वयं देखते हैं कि जब मनुष्य की इन्द्रियां ठीक तरह काम नहीं करती हैं, मस्तिष्क में चिन्तन शक्ति कम रह जाती है, तब उसे कर्तव्य - अकर्तव्य का भान नहीं रहता है और यह सारी स्थिति कर्मोदय पर आधारित है । अतः जो व्यक्ति विषयों में आसक्त होकर परिजनों के व्यामोह में फंसता है, उनमें आसक्त होकर अपने एवं परिजनों के स्वार्थ के लिए विभिन्न पाप कार्यों में प्रवृत्त होता है, वह व्यक्ति पापकर्म का बन्ध करता है और परिणामस्वरूप वृद्धावस्था में उसकी इन्द्रियां शिथिल हो जाने से वह मूढ़ता को प्राप्त होता है ।
. ऐसी अवस्था में जिन परिजनों के लिए वह पाप कार्य में प्रवृत्त हुआ था, वे भी उससे दूर होकर किस तरह उसकी निन्दा करने लगते हैं, इस बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं—
मूलम् - जेहिं वा सद्धिं संवसति तेऽवि णं एगदा णियगा पुव्विं परिवयंति, सोऽवि ते णियए पच्छा परिवएज्जा, णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा, तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा, सरणाए वा, से ण हासाय, ण किंड्डाए, ण रतीए, ण विभूसा ॥6॥
छाया-यैः वा सार्द्ध संवसति तेऽपि एकदा निजकाः (आत्मीयाः) पूर्वं • परिवदन्ति सोऽपि तान् निजकान् पश्चात् परिवदेत्-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा, त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा स न हास्यय, न क्रीडायै, न रत्यै, न विभूषायै ।
पदार्थ - वा- यह शब्द पक्षान्तर या भिन्न क्रम का द्योतक है । जेहिं - जिनके ।