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अध्यात्मसार : 7
आचार-आया-आत्मा, आत्मगत परिणामों का अभिव्यक्त रूप आचार है । आत्मगत भावों में रमण करना अथवा व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मबोध की साधना में रमण करना । इस प्रकार के आचार में, साधना में जो रमण नहीं करता, वह आरंभ करते हुए - आरंभमाणा ।
विषय - विशेष रूप से जिसका दृष्टिकोण आरंभ एवं स्वेच्छाचार का हो गया है, वह अपने आपको संयत कहते हुए भी, 'छंदोवणीया' - जो स्वच्छन्द है । छंद अर्थात् औदायिक भावों का चित्त वृत्तियों का प्रवाह । जो उस प्रवाह में बहता है, किसी की भी नहीं सुनता है उन वृत्तियों के अनुसार अपने मन में जो बैठ गया, वही करता है, वह स्वच्छन्द है । यह स्वच्छंदता बाह्याचार का खयाल न रखने से आती है ।
अज्झोववण्णा-विषयों के पुनः पुनः सेवन से मन में जो आसक्ति का निर्माण होता है उस आसक्ति के आधार पर आर्त एवं रौद्र ध्यान से युक्त परिणामों की जो धारा चलती है, उसे कहते हैं 'अज्झोववण्णा' । इस प्रकार के व्यक्ति आरंभ सत्ता आरंभ में स्थित रहते हुए पुनः पुनः विशेष रूप से आरंभ में रुचि रखते हुए 'परंत संग' कर्मरूपि पंक - कीचड़ का, विषयासक्ति रूप पंक का संग करते हुए उसी में, उसी से लिप्त रहते हैं । बाह्य आचार और आभ्यंतर साधना का पालन करने पर इन दोनों धाराओं से मुक्त हो सकते है । यह शुरूआत यदि श्रावक अवस्था में ही जाए, अर्थात् बारह व्रतों के साथ साधना तब साधु अवस्था में प्रवेश करना सुलभ रहता है। बाह्य आचार अथवा आन्तरिक साधना दोनों में से किसी एक का भी खण्डन होने पर आरंभ की शुरूआत होती है।
विरूवरूवेही - विविध प्रकार के उद्देश्यों से एक अर्थ यह भी होता है - विविध प्रकार के संकल्प - विकल्पों के कारण ।
जे आयारे ण रमंति - व्यक्ति का मन किस प्रकार आत्मगत परिणामों में रमण कर सके।
गुरु कौन ? गुरु वही होता है, जो जानता है कि किस प्रकार, किस उपाय से शिष्य का मन आत्मा में रमण करता रहे। मूल बात यही है कि कैसे उसे साधना में प्रसन्नता का अनुभव हो सके, प्रसन्नतापूर्वक आत्मगत भावों में रमण कर सके और यह बात वही सुसाधु, गुरु, देख सकता है जो स्वयं आत्मगत भावों में रमण करता है;