________________
262
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
आहार, अधिक विपरीत अयोग्य, आवश्यकता से न्यून, गलत विहार इत्यादि।
उपाय है-उपयुक्त शुद्ध आहार, हो सके तो दिन में एक बार अन्यथा दो-बार, तपस्या एवं रोग में तीन बार।
आसन-प्राणायाम नियमित, छह माह में एक बार शंख प्रक्षालन, न्यूनतम हो सके तो 7 दिन में एक बार कुंजल, शुद्ध सत्त्व के संग में रहना।
गण की व्यवस्था हेतु निर्देश
गण को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए-गणनायक की आज्ञा से प्रत्येक कार्य होना चाहिए। गणनायक को भी निस्स्वार्थ, निरपेक्ष और निष्पक्ष होकर सभी सदस्यों की प्रकृति, स्वभाव, परिस्थिति, उनके सोचने-समझने की शक्ति, उनका संघयन, उनके संस्कार, जाति-कुल इत्यादि बातों को पूर्णतः खयाल में रखते हुए सभी के हित एवं मंगल के लिए जो भी उपयुक्त हो, उसके अनुसार आगम आज्ञा में रहते हुए प्रभावना के मंगल उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, आत्मसाधना के शुद्ध लक्ष्य को खयाल में रखकर, सम्यक् उचित निर्णय लेना चाहिए। उसी से गण एवं सदस्यों का विकास होता है। सद्गुणों का प्रोत्साहनं और दुर्गुणों की प्रेमपूर्वक निवृत्ति की तरफ सदा लक्ष्य रहना चाहिए।
मूलम्-एत्थंप जाणे उवादीयमाणा, जो आयरे ण रमंति, आरम्भमाणा विणयं, छंदोवणीया अज्झोववण्णा, आरम्भ सत्ता पकरन्ति संग॥1/7/61
मूलार्थ-हे शिष्य! तू इस बात को भली भांति जान ले कि जो जीव छह काय का आरंभ करते हैं, वे कर्मों से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं और वे ही जीव हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। जो पंचाचार में रमण नहीं करते हैं, वे स्वेच्छाचारी अपने आपको संयमी कहते हुए भी विषय-वासना एवं आरंभ से आसक्त होकर आत्मा के साथ अष्टकर्मों का संग करते हैं।
उवादीयमाणा-औदायिक भाव में रमण करना, कर्मों से आबद्ध होना, संसार में रमण करना, इच्छाओं के पीछे दौड़ना, ऐसा कौन करता है? जे आयारे ण रमंति।