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अध्यात्मसार : 7
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विनम्रता उसका आन्तरिक गुण है। ऐसे सत्य निश्चल विनय से, व्यक्ति परिज्ञात-कर्मा हो जाता है। मुनि की साधना, साधक की साधना में पुरुषार्थ के साथ विनम्रता होनी चाहिए। अतः मुनि दो प्रकार से पुरुषार्थ करता है-1. भगवान की आज्ञा में, 2. गुरु की आज्ञा में। किसकी विनय करनी-भगवान की, आगम की, शासन की, सुसाधु की।
अरिहंत का अर्थ-मूलतः होता है तीर्थंकर भगवान, केवलज्ञानी भगवंत भी, अरिहंत की श्रेणी में ही हैं, परन्तु प्रमुख रूप से तीर्थंकर भगवंतों को अरिहंत कहते हैं; क्योंकि वे तीर्थ की स्थापना कर धर्म का पुनरुत्थान कहते हैं। उन्हीं का शासन चलता है। फिर भी साधरण रूप से अरिहंतों को नमस्कार करते हुए केवलज्ञानियों को भी नमस्कार हो जाता है।
मेहावी-मेधावी-मेधा से युक्त व्यक्ति, मेधा अर्थात् सत्य और असत्य का सार एवं असार ग्राह्य एवं अग्राह्य का निर्णय करने की दीर्घ दृष्टि युक्त सूक्ष्म बुद्धि, जो वस्तु जैसी प्रतीत हो रही है, वैसी नहीं अपितु वास्तव में जो जैसी है, वैसा जान सकने की बुद्धि ज्ञान दृष्टि। उदयमान बुद्धि के साथ जब दीर्घ दृष्टि एवं तत्त्वज्ञान का संयोग होता है, तब उसे मेधा कहते हैं। तत्त्व-ज्ञान से ही मेधा जागृत होती है, परिष्कृत होती है।
परिज्ञातकर्मा बनने का सरलतम उपाय-जिसे कर्माश्रव या संवर एवं निर्जरा का ज्ञान है, ऐसे परिज्ञातकर्मा मुनि बनने का सरल उपाय है 'सोऽहं' ध्यान। बाह्य तप भी इसमें सहयोगी है। अनशन, ऊनोदरी, आयंबिल इत्यादि। इसमें भी सर्वश्रेष्ठ है आहार शुद्धि के साथ 'एगभतं च भोयणं' एक समय भोजन, उससे भी श्रेष्ठ है, एक दिन ‘एगभंत भोयण' दूसरे दिन उपवास इस प्रकार का क्रम।
साधु को रोग होने के कारण और उपाय
मुनिजनों को शरीर के संबंध में-स्वावलम्बी रहना चाहिए। जहाँ तक हो सके, स्वावलम्बी रहना, जब सहयोग भी लेना पड़े तो संयमी तथा व्रतधारियों से लेना।
रोग का आगमन-कर्म के उदय से भी विपरीत होता है, साथ ही गलत