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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए, इच्चत्थं गड्ढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेण वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति॥1/7/59 ____ मूलार्थ-हिंसा से लज्जित हुए दूसरे वादियों को हे शिष्य! तू देख। ये लोग, हम अनगार हैं, इस प्रकार कहते हुए भी नाना प्रकार के शस्त्रों से वायु कर्म समारंभ के द्वारा वायुकाय शस्त्र का समारम्भ-प्रयोग करते हुए साथ में अन्य प्रकार के भी अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं। इस विषय में भगवान ने परिज्ञा-ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा का प्रतिपादन किया है। ये प्रमादी जीव इस निस्सार जीवन के निमित्त प्रशंसा, सन्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण से छूटने के लिए और अन्य शारीरिक-मानसिक दुःखों के विनाशार्थ नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा स्वयं वायुकाय की विराधना करते हैं, दूसरों से कराते हैं तथा अन्य करने वालों की प्रशंसा करते हैं, परन्तु यह उनके अहित के लिए और अबोध के लिए है। इस प्रकार वायुकाय समारंभ के इस अनिष्ट फल को भगवान अथवा उनके संभावित साधुओं से सुनकर सम्यक् श्रद्धा युक्त बोध को प्राप्त हुआ शिष्य यह जानने लगता है कि इस संसार में किसी-किसी व्यक्ति को ही यह ज्ञात होता है कि यह आरम्भ अष्टकर्मों की ग्रन्थि रूप है, मोह, मृत्यु और नरक रूप है, ऐसा जान लेने पर भी अर्थाभिकांक्षी लोक-प्राणिसमूह इससे पराङ्मुख नहीं होता, अपितु अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा वायुकाय समारंभ से वायुकाय के जीवों की विराधना के साथ-साथ अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों का भी विनाश करता है। ___अंतिए-अन्तेवासी अर्थात जो अन्तिम होने को तैयार है। जो विनीत होकर विनय करता है।
विनय दो प्रकार से होता है-1. अविनीत का विनय-जिसके प्रति मोह है उस मोहवश विनय करना, कोई स्वार्थ है उस स्वार्थवश, स्वार्थ की पूर्ति हेतु विनय करना। किसी से भय हे, भय के वश विनय करना, ईर्ष्या के वश विनय करना। 2. विनीत का विनय-कर्मों के क्षयोपशम के कारण, अहंकार के गल जाने से मोहनीय कर्म क्षीण एवं मंद हो जाने पर जो विनय होती है, वह विनीत का विनय है; क्योंकि वह विनय किसी प्रकार के मोह, स्वार्थ, भय या ईर्ष्या वश न होकर स्वभावगत होती है।