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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
हैं, परन्तु मुख्यतः न्यून ही रहते हैं। स्वरूपबोध होने पर कर्मबन्धन के जो आठ मूल स्थान हैं, जीवन, परिवन्दन इत्यादि उनमें से कुछेक का तो विच्छेद ही हो जाता है
और अन्य न्यूनतम अवस्था में रहते हैं। अभी भी कषाय हैं, अतः कर्म बन्धन होता है। लेकिन जीवाकांक्षा न रहने पर वह जान जाता है कि मेरा जीवन किसी पर आधारित नहीं है।
इस प्रकार एक स्वरूपबोध के होने पर अनंत-अनंत जीवों को अभयदान मिलता है और एक आत्मज्योति जगने पर वह अनेकानेक आत्मज्योति के जागरण हेतु निमित्त बन सकती है। जीवाकांक्षा से व्यक्ति किस प्रकार मुक्त होता है? चिंतन-मनन एवं स्वाध्याय से कुछ फर्क पड़ता है, परन्तु मूल है-1. सद्गुरु का सत्संग, जिन्हें स्वरूप बोध हो गया है, ऐसे आत्म ज्ञानी गुरु का संग। 2. प्रमुख कारण हैं आभ्यंतर साधना।
सद्गुरु की कसौटी क्या है? ऐसे तो कोई भी कसौटी काम नहीं आती; फिर भी व्यक्ति की मुमुक्षा ही आत्मज्ञानी की पहचान कर लेती है। आत्मज्ञानी व्यक्ति के गुणों में मुख्य है-साम्य भाव, देहाध्यास से निवृत्ति, देहाध्यास से क्या पूर्ण निवृत्ति होती है? जहां पर हम खड़े हैं, उस अपेक्षा से पूर्ण, लेकिन केवलज्ञानी भगवान की अपेक्षा से अपूर्ण। जिसे हम विदेही अवस्था कहते हैं। ,
'देह छता जेनी दशा वर्ते देहातीत।'
इस प्रकार अन्य लक्षण भी श्रीमद् राजचन्द ने आत्म सिद्धि में बताएं हैं, वहां पर आप देख सकते हैं।
कायोत्सर्ग-द्रव्य...ठाणेणं मोणेणं, झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि। . भाव-स्वरूप में रमण। आत्मस्थित हो जाना।
श्रावक को क्या पढ़ना-पढ़ाना-साधुजन सामायिक से लेकर ग्यारह अंग तक अध्ययन करते थे, लेकिन श्रावक-जन नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें वह योग्यता नहीं है। श्रावक को यदि अध्ययन करना हो तो उसे साधु की तरह रहना चाहिए। जीवन भर के लिए पूर्णतः शीलव्रत अथवा महीने के पाँच दिन छोड़कर। फिर भी यह जो ज्ञान है वह मूलतः साधुजनों के लिए है। श्रावकों के लिए मुख्यतः उपासक-दशांग सूत्र, अंतकृत दशांग सूत्र, ज्ञाता धर्म कथांग सूत्र, महापुरुषों के चरित। साधु का आचार पढ़कर वे क्या करेंगे? हाँ, इतना अवश्य बताना जरूरी है कि साधु का मुख्य