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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध __ मूलार्थ-वायुकायिक जीवों की हिंसा को दुःखोत्पादक होने से जो व्यक्ति उसे अहितकर जानता है, वह उनकी रक्षा करने में समर्थ होता है और जो अपने सुख-दुःख आदि को जानता है, वह अन्य प्राणियों के सुख-दुःख को भी जानता है और जो प्राणी जगत के सुख-दुःख को जानता है, वह अपने सुख-दुःख को भी जानता है। इस तरह मुनि अपने एवं प्राणिजगत, अर्थात् समस्त प्राणियों के सुख-दुःख को समान समझकर सबकी रक्षा करे। ___1. आयंकदंसी-आतंकदर्शी, आतंक क्या है, जो अपने लिए तथा दूसरों के लिए, उस आतंक को, भय के स्थान को, भय के मूल कारण को सत्य स्वरूप में देख लेता है, वह आतंकदर्शी है।
भय के मूल कारण-यदि आरंभ, राग-द्वेष, इसको जो अपने अनुभव से जान लेता है, वह आतंकदर्शी है।
अहियंतिणच्या-अहितकर. का बोध हो जाना। मेरे लिए एवं अन्य जीवों के लिए अहितकर क्या है? अहित का कारण एवं मूल क्या है? जो यह जान लेता है, वह अहियंतिणच्या है। __ तुलमन्नेसिं-जो अपने अन्तःकरण को जानता है, वह दूसरों के अन्तःकरण को भी जानता है। जो अन्य के अन्तःकरण को जानता है, वह अपने अन्तःकरण को भी जानता है। एक अपेक्षा से जो अन्तःकरण में होने वाले सुख-दुःख को जानता है, ऐसा व्यक्ति तुल्यमना बन जाता है। उसके मन में साम्य-भाव जागृत होता है। इस प्रकार जो आरंभ-समारंभ में आतंक को देखता है, इस संसार में आतंक का मूल कारण क्या है, यह जानता है, ऐसा आतंकदर्शी तथा जिसे अहितकर का बोध है एवं जो तुल्यमना है, ऐसे व्यक्ति के चित्त में दुगंछणाए-कषाय एवं विषयों से निवृत्ति-रूप, स्वरूप-रमण में प्रवृत्ति रूप स्वाभाविक वृत्ति जागृत होती है, जिससे वह ‘पहू' प्रभु या समर्थ बनता है।
मूलम्-इह संतिगया दविया णावकंखंति जीविउं॥1/7/58
मूलार्थ-इस जिनशासन में शान्ति को प्राप्त हुए मोक्षमार्ग पर गतिशील मुनि वायुकायिक जीवों को हिंसा करके अपने जीवन को जीवित रखने की इच्छा नहीं करते।