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अध्यात्मसार : 7
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की प्रेरणा करेगा और यदि अन्य शूकर उसकी बात को प्रमाणरूप मानकर उसका अनुसरण करें, तब उन अन्य शूकरों को लाभ होगा या हानि ? निश्चित ही लाभ होगा । प्रत्येक व्यक्ति के पास बोध नहीं होता। लेकिन जिनके पास बोध है, उनकी वाणी की स्वीकार कर आचरण करने से अवश्य ही लाभ होता है । इसलिए हमें भी तीर्थंकर भगवान की वाणी को यथातथ्य स्वीकार करना चाहिए । लेकिन कई लोग सबूत मांगते हैं कि हमें बताओ कि विष्ठा क्यों ठीक नहीं है। ज्ञान का क्या प्रमाण है ? ज्ञान तो स्वयं ही स्वयं का प्रमाण है ।
ऐसे प्रमाण मांगने वाले ही भटक जाते हैं । वे चमत्कार को प्रमाण मानते हैं । किसी विशेष असाधारण व्यक्ति के दर्शन एवं प्रदर्शन में विश्वास करते हैं । वे फिर संसार में, मिथ्यात्व में भटक जाते हैं, क्योंकि ऐसी शक्तियाँ तो मिथ्यात्वी के पास भी होती हैं।
धर्म और अधर्म का प्रमाण
अधर्म से - उद्वेग और उपाधि वृद्धिगत होती है ।
धर्म से - चित्त में संवेग और समाधि की वृद्धि होती है ।
समाधि- समाधि अर्थात् कषायों की उपशांति, संकल्प एवं विकल्पों का जागरूकतापूर्ण उपशमन ।
धर्म चमत्कार में नहीं है । धर्म तो संवेग और समाधि में है ।
कहा भी है- 'जे स्वरूप समज्या बिना पाम्यो दुःख अनंत' अर्थात् स्वरूप का 1. बोध होना मुनित्व की शुरूआत है, अंत नहीं । श्रीमद् राजचन्द्र जी कहते हैं कि चमत्कार के वश जब भी कोई धर्म करता है, तब वह साधारण रूप से क्षणिक होता है । अपवाद रूप से कभी-कभी चमत्कार भी धर्म-साधना का निमित्त बन जाता है । जब धर्म कर्मों के क्षयोपशम स्वरूपबोध, साधना एवं संवेग के द्वारा आता है, तब वह टिकता है। अतः चमत्कारों में नहीं पड़ना ।
मूलम्-आयंकदंसी अहियंति, जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाण, जे बहिया जाणइ से णच्या अज्इत्थं जाणइ, एयं तुलमन्नेसिं ॥1/7// 57