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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 7
विष आदि ज़हरीले पदार्थों से मिश्रित भोजन द्रव्य आतंक है और नरक, तिर्यंच आदि गतियों में भोगे जाने वाले दुःख भाव आतंक कहलाते हैं । इन उभय आतंकों के स्वरूप को भली-भांति जानने वाला आतंकदर्शी कहलाता है । इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि आरम्भ-समारम्भ एवं पाप-कार्य से डरने वाला व्यक्ति ही आतंकदर्शी होता है क्योंकि आरम्भ - समारम्भ से पापकर्म का बन्ध होता है और पापकर्म के बन्धन से जीव नरक आदि गतियों में उत्पन्न होता है और वहां विविध दुःखों का संवेदन करता है । अस्तु, उन दुःखों से डरने वाला, अर्थात् नरक आदि गति में महावेदना का संवेदन न करना पड़े, ऐसी भावना रखने वाला आतंकदर्शी व्यक्ति सदा आरम्भ-समारम्भ से बचकर रहता है, वह हिंसा से निवृत्त रहता है, प्रतिक्षण विवेकपूर्वक कार्य करता है, फलस्वरूप वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता और न नरक - तिर्यंच के दुःखों का संवेदनही करता है 1
इससे यह स्पष्ट हो गया कि जो आतंकदर्शी है, वही व्यक्ति हिंसा को अहितकर एवं दुःखजनक समझकर उससे निवृत्त होने में समर्थ है । वस्तुस्थिति भी यही है कि हिंसा को अहितकर समझने वाला ही उसका परित्याग कर सकता है । जो व्यक्ति हिंसा के भयावने परिणाम से अनभिज्ञ है तथा हिंसा को अहितकर एवं बुरा नहीं समझता है, उससे हिंसा से निवृत्त होने की आशा भी कैसे रखी जा सकती है? अतः आतंकदर्शी ही हिंसा से निवृत्त हो सकता है ।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'जे अज्झत्थं जाणइ ......' आदि पद भी बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इन पदों के द्वारा सूत्रकार ने आत्म-विकास की ओर गतिशील आत्मा का वर्णन . किया है । वास्तव में वही व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास कर सकता है, जो अपने सुख-दुःख के समान ही अन्य प्राणियों के सुख-दुःख को देखता है तथा दूसरों के सुख-दुःख के समान ही अपने सुख-दुःख को समझता है या यों कहिए जो अपनी आत्मा के तुल्य ही समस्त प्राणियों की आत्मा को देखता है, वही विकासगामी है या मोक्षमार्ग का पथिक है ।
जब दृष्टि में समानता आ जाती है, तो फिर व्यक्ति किसी भी प्राणी को पीड़ा पहुंचाने का प्रयत्न नहीं करता। वह अपने सुख या स्वार्थ के लिए दूसरे के सुख, स्वार्थ एवं हित पर आघात - चोट नहीं करता । दूसरे को दुःख, कष्ट पहुंचाकर भी