________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
अपने सुख एवं स्वार्थ को साधने की भावना तभी तक बनी रहती है, जब तक दृष्टि में विषमता है, अपने और पराये सुख का भेद है । अतः समानता की भावना जागृत होने के बाद आत्मा की विचारधारा में और विचार के ही अनुरूप आचार में परिवर्तन हो जाता है। फिर तो मनुष्य आत्मा (अपनी ) तुला से प्राणिमात्र के सुख-दुःख को तौलता हुआ सदा प्राणिमात्र के संरक्षण में संलग्न रहता है । यही उसकी आत्मा क विकास-मार्ग है, मोक्षमार्ग है ।
240
इससे निष्कर्ष यह निकला कि आतंकदर्शी अपनी आत्मतुला से प्राणी जगत के सुख-दुःख को तौलकर हिंसा से निवृत्त होता है, अर्थात् समस्त प्राणियों की रक्षा में प्रवृत्त होता है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि वह आतंकदर्शी साधक स्थावर जीवों की या वायुकायिक जीवों की रक्षा में किस प्रकार प्रवृत्त होता है? इसी बात का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं
मूलम् - इह संतिया दविया णावकंखंति जीविउं ॥58॥ छाया-इह शान्तिगताः द्रविकाः नावकाङ्क्षन्ति जीवितुम् । पदार्थ- - इह - इस जिन - शासन में | संतिगया - शांति को प्राप्त हुए। दविया - राग-द्वेष से रहित संयमी मुनि वायुकाय की हिंसा से । जीविउं - अपने जीवन को रखना । णावकखंति - नहीं चाहते ।
मूलार्थ - इस जिनशासन में शान्ति को प्राप्त हुए मोक्षमार्ग पर गतिशील मुनि वायुकायिक जीवों की हिंसा करके अपने जीवन को जीवित रखने की इच्छा नहीं करते ।
हिन्दी - विवेचन
यह हम सदा देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को - प्रत्येक प्राणी को, जीवन प्रिय है और प्रत्येक व्यक्ति जीवन को अधिक-से-अधिक समय तक बनाए रखने की इच्छा रखता है और इसके लिए वह हर प्रकार का कार्य कर गुज़रता है । आज दुनिया में चलने वाले छल-कपट, झूठ, फरेब, हिंसा, चोरी आदि पापकार्य इस क्षणिक जीवन के “ लिए ही तो किए जाते हैं । इसके लिए प्रमादी व्यक्ति बड़े से बड़ा पाप एवं जघन्य कार्य करते हुए नहीं हिचकिचाता है।