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________________ 238 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-“एजतीत्येजी वायुः कम्पनशीलत्वात्" । अर्थात् कम्पनशील होने के कारण वायु को 'एज' कहते हैं और जुगुप्सा का अर्थ निवृत्ति है। इससे निष्कर्ष यह निकला कि वायुकाय के आरम्भ से निवृत्त होने में वह व्यक्ति समर्थ है, जो सूत्रकार की भाषा में निम्नोक्त गुणों से युक्त होता है मूलम्-आयंकदंसी अहियंति णच्चा, जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ, जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ, एयं तुलमन्नेसिं॥57 ___ छाया-आतङ्कदर्शी अहितमिति ज्ञात्वा, योऽध्यात्मं जानाति स बहिर्जानाति यो बहिर्जानाति सोऽध्यात्मं जानाति एतां तुलामन्वेषयेत्।। पदार्थ-अहियं ति-वायुकायिक जीवों की रक्षा वही कर सकता है, जो आरंभ को अहितकर । णच्चा-जानकर। आयंकदंसी-आतंकदर्शी-दुःखों का ज्ञाता है, द्रष्टा है। जे-जो। अज्झत्थं-आत्मस्थित-अपने सुख-दुःख को। जाणइ-जानता है। से-वह। बहिआ-अन्य प्राणियों के सुख-दुःख आदि को जानता है। जे-जो। बहिया-अन्य प्राणियों के सुख-दुःख को। जाणइ-जानता है। से-वह। अज्झत्थं जाणइ-अपने सुख-दुःख को जानता है। एवं-इन दोनों को। तुलं-तुल्य। अन्नेसिंगवेषण करे, अर्थात् जगत के अन्य जीवों को अपने समान जानकर उनकी रक्षा करे। मूलार्थ-वायुकायिक जीवों की हिंसा को दुःखोत्पादक होने से जो व्यक्ति उसे अहितकर जानता है, वह उनकी रक्षा करने में समर्थ होता है और जो अपने सुख-दुःख आदि को जानता है, वह अन्य प्राणियों के सुख-दुःख आदि को भी जानता है, और जो प्राणि-जगत के सुख-दुःख को जानता है, वह अपने सुख-दुःख को भी जानता है। इस तरह मुनि अपने एवं प्राणिजगत के, अर्थात समस्त प्राणियों के सुख-दुःख को समान समझ कर सब की रक्षा करे। हिन्दी-विवेचन संसार में दो प्रकार का आतंक होता है-1. द्रव्य-आतंक और 2. भाव-आतंक।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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