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________________ 230 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध भवंति-अपरिज्ञात होते हैं। एत्थ-इस त्रसकाय के विषय में। सत्थं-शस्त्र का। असमारंभमाणस्स-समारम्भ नहीं करने वाले को। इच्चेते-ये सब। आरंभा-आरम्भ। परिण्णाया भवन्ति-परिज्ञात होते हैं। तं परिण्णाय-उस आरम्भ को परिज्ञात करके। मेहावी-बुद्धिमान। णेव सयं-न स्वयं। तसकाय-सत्थं-त्रसकाय-शस्त्र का। समारंभेज्जा-समारम्भ करे। णेवण्णेहि-न अन्य से। तसकाय-सत्थंत्रसकाय-शस्त्र का। समारंभावेज्जा-समारंभ करावे, तथा। तसकाय सत्थं-त्रसकाय शस्त्र का। समारंभंते-समारंभ करने वाले। अण्णे-अन्य व्यक्ति का। णेव-नहीं। समणुजाणेज्जा-समर्थन करे। जस्सेते-जिसको ये। तसकाय-समारंभात्रसकाय-समारम्भ। परिण्णाया भवंति-परिज्ञात होते हैं। से हु मुणी-वही मुनि। परिण्णायकम्मे-परिज्ञातकर्मा है। त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ। मूलार्थ-जो व्यक्ति त्रसकाय के आरंभ का त्यागी नहीं है, वह इन आरंभों से अपरिज्ञात है। और जो त्रसकाय के आरम्भ का त्यागी है, उसे ये आरम्भ परिज्ञात हैं। और ज्ञपरिज्ञा से इन आरंभों को जानने तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से इन आरम्भों का त्याग करने वाला बुद्धिमान व्यक्ति न स्वयं त्रसकाय की हिंसा करता है, न दूसरों से कराता है और न हिंसा करने वाले व्यक्ति का समर्थन ही करता है। जिस व्यक्ति को ये आरम्भ परिज्ञात हैं, वही मुनि परिज्ञात-कर्मा है। ऐसा मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या दूसरे-तीसरे आदि उद्देशकों के अन्तिम सूत्रवत् ही समझनी चाहिए। 'त्ति बेमि' की व्याख्या भी पूर्ववत् ही समझें ॥शस्त्रपरिज्ञा षष्ठ उद्देशक समाप्त॥
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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