SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 6 लिए सूअर का' या दांत के लिए हाथी का, दाढ़ के लिए वराह आदि का, स्नायु के लिए गो-महिषी आदि का, अस्थि के लिए शंख, सीप आदि का, अस्थि-मज्जा के लिए सूअर आदि का वध करते हैं । अनेक लोग प्रयोजन से पशु-पक्षियों का वध करते हैं और कुछ एक व्यक्ति निष्प्रयोजन ही अर्थात् केवल कुतूहल के लिए, मनोरंजन के लिए अनेक प्राणियों की जान ले लेते हैं । कुछ व्यक्ति सिंह - सर्प आदि को इसलिए मार देते हैं कि इन्होंने मेरे स्वजन - स्नेहियों को मारा था। कुछ लोग उन्हें इसलिए मार देते हैं कि ये विषाक्त, जन्तु मुझे मारते हैं और कुछ व्यक्ति इस संदेह से ही उनका प्राण ले लेते हैं कि ये जन्तु भविष्य में मुझे मारेंगे। इस प्रकार अनेक संकल्प-विकल्प एवं स्वार्थों के वश व्यक्ति त्रस जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं और उससे प्रगाढ़ कर्म-बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करते हैं । इसलिए विवेकशील पुरुष को इन हिंसा-जन्य कार्यों से दूर रहना चाहिए । इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं 229 मूलम् - एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति, तं परिण्णाय मेहावी णेवसयं, तसकायसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं तसकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे तसकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते तसकाय सत्य समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिणाय कम्मे, त्तिबेमि ॥55॥ छाया - अत्र शस्त्रं समारंभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाताः भवन्ति, अत्र शस्त्रमसमारम्भमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति । तत्परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं त्रसकाय - शस्त्रं समारभेत, नैवान्यैः त्रसकाय-शस्त्रं समारम्भयेत्, नैवन्यान् त्रसकाय शस्त्रं समारंभमाणान् समनुजानीयात् । यस्यैते त्रसकाय समारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति सः एव मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि । पदार्थ - एत्थ - इस त्रस काय के विषय में । सत्यं - शस्त्र का । समारंभमाणस्ससमारंभ करने वाले को । इच्चेते - ये सब । आरंभा-समारंभ । अपरिण्णाया 1. हाथी और सूअर के दांत को विषाण कहते हैं । परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में विषाण शब्द सूअर के दांत के लिए प्रयुक्त हुआ है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy