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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 6
समारम्भ करने वालों की । समणुजाणइ - अनुमोदन करता है । तं - वह-सकाय का आरम्भ। से- उसको । अहियाए -अहित के लिए है । तं -व - वह - आरम्भ । से- उसको । अबोहियाए- अबोध के लिए है । से - वह । तं - उस आरम्भ के फल के । संबुज्झमाणे - संबोध को प्राप्त होता हुआ । आयाणीयं - आचरणीय - सम्यग् दर्शनादि विषय में । समुट्ठाय - सावधान होकर । सोच्चा-सुनकर । भगवओ - भगवान वा । अणगाराणं- अनगारों के। अंतिए - समीप । इहं - इस संसार में। एगेसिं- किसी-किसी जीव को । णायं - विदित । भवति - होता है। एस खलु - निश्चय ही यह आरंभ । गंथे-आठ कर्मों की ग्रन्थि रूप है। एस खलु - यह आरंभ | मोहे - मोह अज्ञान रूप है। एस खलु - यह आरंभ। मारे - मृत्यु रूप है। एस खलु - यह आरंभ। णरए - नरक रूप है । इच्चत्थं - इस प्रकार अर्थादि में। गड्ढए - मूर्च्छित है । लोए - लोक - प्राणिसमुदाय । जमिणं - जिस कारण से । विरूवरूवेहिं - नाना प्रकार के । सत्थेहिं-शस्त्रों से। तसकाय-समारंभेणं - सकाय के समारंभ के निमित्त। तसकाय - सत्यं - त्रसकाय-शस्त्र का। समारंभमाणे- समारंभ करता हुआ । अण्णे - अन्य । अणेगरूवेअनेक प्रकार के । पाणे - प्राणियों की । विहिंसति - विविध प्रकार से हिंसा है
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मूलार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं, हे शिष्य ! तू सावधानुष्ठान से लज्जित हुए इन अन्यमत वालों को देख । जोकि हम अनगार हैं इस प्रकार कहते हुए भी नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा त्रसकाय के समारंभ के निमित्त
सकाय का विनाश करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की भी हिंसा करते हैं। इस त्रसकाय-समारंभ के विषय में भगवान ने अपने प्रकृष्ट ज्ञान से प्रतिपादन किया हैं कि जो यह प्रमादी जीव इस क्षणभंगुर जीवन के निमित्त प्रशंसा, सन्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण से छूटने के लिए तथा अन्य कायिक- वाचिक और मानसिक दुःखों की निवृति के लिए सकाय का स्वयं आरंभ करता है, दूसरों से कराता है और जो आरंभ कर रहे हैं, उनकी प्रशंसा करता है वह आरंभ उसके अहित और अबोधि लाभ के लिए है। इस प्रकार स्वयं भगवान अथवा उनके सम्भावित साधुओं से सकाय के समारम्भ के अनिष्ट फल को सुन कर पूर्ण श्रद्धा और सम्यक् बोध को प्राप्त हुआ शिष्य यह जानने लगता है कि यह का समारम्भ अष्ट कर्मों की ग्रन्थि रूप है, मोह का कारण होने से मोह रूप है तथा मृत्यु