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________________ 226 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध का कारण होने से मृत्यु रूप है और नरक का हेतु होने से नरक रूप है। फिर भी विषय-भोगों में अधिक मूर्छित हुआ आसक्त हुआ यह लोक प्राणिसमूह इससे निवृत्त नहीं होता। जोकि यह प्रत्यक्ष रूप से नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा त्रसकाय के समारम्भ से त्रसकाय के विनाश के साथ साथ अन्य भी अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करता है। हिन्दी-विवेचन ... प्रस्तुत सूत्र को व्याख्या पृथ्वी और अप्काय के प्रकरण में विस्तार से कर चुके हैं। यहां इतना ही बता देना पर्याप्त होगा कि प्रस्तुत सूत्र में अध्यात्म योग साधना की ओर भी एक संकेत है। साधक को आध्यात्मिक साधना के द्वारा आत्मशक्ति को विकसित करना चाहिए। आध्यात्मिक साधना का अर्थ है-योगों को स्थिर करना या सावध कार्यों से हटाकर साधना में स्थिर होना। इसका स्पष्ट अर्थ है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस आदि समस्त प्राणिजगत के साथ समता एवं मैत्री भाव स्थापित करके, सर्व जीवों की हिंसा से त्रिकरण एवं त्रियोग से निवृत्त होना, इसी को आध्यात्म योग कहा है। प्रस्तुत सूत्र में “तसपाणे-त्रस प्राण" वाक्य का प्रयोग किया गया है। प्राण ' नाम श्वासोच्छवास का है। इसका तात्पर्य यह है कि जो प्राण संत्रस्त हैं-विषम चल रहे हैं, उन्हें निरोध कर के सम करना, जिससे मन और आत्मा में समता का प्रादुर्भाव हो सके। इस तरह प्रस्तुत सूत्र में आध्यात्मिक चिन्तन एवं आत्म-विकास की ओर बढ़ने का भी संकेत मिलता है। यह पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि प्रमादी जीव आतुरता के वश तथा अपना स्वार्थ साधने के लिए या अपने जीवन को सुखमय बनाने आदि के लिए हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। इसके अतिरिक्त हिंसा में प्रवृत्त होने के और भी कई कारण हैं। उन्हें स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-से बेमि, अप्पेगे अच्चाए हणंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, एवं हियाए, पित्ताए, 1. आत्मामनोरूपतत्त्व समतायोगलक्षणो ह्यध्यात्मयोगः। -नीतिवा. समुः 6, सूत्र 1
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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