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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 6 223 बिलकुल सत्य है कि कार्य करने के पूर्व खूब गहराई से सोच-विचार लेना चाहिए और धीरता के साथ काम करना चाहिए। जैसे व्यावहारिक कार्य के लिए धीरता आवश्यक है, उसी तरह आध्यात्मिक साधना के लिए भी धीरता आवश्यक है। इससे स्पष्ट हो गया कि आतुरता जीवन का बहुत बड़ा दोष है। आतुर व्यक्ति जीवन का एवं प्राणियों का हिताहित नहीं देखता। वह तो अपना स्वार्थ या प्रयोजन पूरा करने की चिन्ता में रहता है। भले ही, उसमें अनेक जीवों का नाश हो या उन्हें परिताप हो वह यह नहीं देखता, क्योंकि आतुरता में उसकी दृष्टि धुंधली हो जाती है। अपने स्वार्थ एवं विषय-वासना के अतिरिक्त उसके सामने कुछ रहता ही नहीं। इसी अपेक्षा से कहा गया कि विषय-वासना में आतुर व्यक्ति त्रस जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं और पृथ्वी, पानी, वायु आदि के आश्रय में रहे हुए विभिन्न जीवों को विभिन्न प्रकार से परिताप देते हैं। अतः हिंसा में प्रवृत्त होने का कारण आतुरता एवं स्वार्थी मनोभावना ही है, ऐसा समझना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि आतुरता हिंसा का कारण है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को आतुरता का त्याग करके हिंसा से दूर रहना चाहिए। उसे प्रत्येक कार्य धीरता के साथ विवेक एवं यत्ना पूर्वक करना चाहिए। इस सम्बन्ध में अन्य मत के विचारों को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं- . मूलम्-लज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति, तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणणपूयणााए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव तसकायसत्थं समारभइ अण्णेहिं वा तसकायसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति, एस खलु गंथे-एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्डिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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