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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मूलम्-तत्थ-तत्थ पुढो पास आतुरा परितावेंति, संति पाणा पुढो सिया ॥52॥
छाया-तत्र-तत्र पृथक् पश्य आतुराः परितापयन्ति सन्ति प्राणिनः पृथक् श्रिताः।
पदार्थ-तत्थ-तत्थ-उन-उन कारणों में। पुढो-विभिन्न प्रयोजनों के लिए। पास-हे शिष्य! तू देख। आतुरा-विषयों में आतुर-अस्वस्थ मन वाले जीव। परिताति-अन्य जीवों को परिताप देते हैं-दुःखों से पीड़ित करते हैं, किन्तु। पाणा-प्राणी। पुढो-पृथक्-पृथक् । सिया-पृथ्वी, जल, वायु आदि. के आश्रित। संति-विद्यमान हैं। ____ मूलार्थ-हे शिष्य! तू देख कि ये विषय-कषायादि से पीड़ित अस्वस्थ मन वाले जीव विभिन्न प्रयोजन एवं अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए अनेक त्रस प्राणियों को परिताप, कष्ट एवं वेदना पहुंचाते हैं। ये त्रस जीव पृथ्वी, पानी वायु आदि के आश्रय में रहे हुए यत्र-तत्र-सर्वत्र विद्यमान हैं। . हिन्दी-विवेचन
भारतीय चिन्तनधारा के प्रायः सभी चिन्तकों और विचारकों ने हिंसा को पाप माना है, त्याज्य कहा है। फिर भी हम देखते हैं कि अनेक व्यक्ति त्रस जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। इसी कारण यह प्रश्न उठता है कि जब हिंसा दोषयुक्त है, तो फिर अनेक जीव उसमें प्रवृत्त क्यों होते हैं? प्रस्तुत सूत्र में इसी प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार ने बताया है कि विषय-वासना में आतुर बना व्यक्ति हिंसा के कार्य में प्रवृत्त होता है।
हिंसा में प्रवृत्ति के लिए सूत्रकार ने “आतुर” शब्द का प्रयोग किया है। वस्तुतः आतुरता-अधीरता जीवन का बहुत बड़ा दोष है। जीवन-व्यवहार में भी हम देखते हैं कि आतुरता के कारण अनेकों काम बिगड़ जाते हैं, क्योंकि जब जीवन में किसी कार्य के लिए आतुरता, अधीरता या विवशता होती है, तो वह व्यक्ति उस समय अपने हिताहित को भूल जाता है। परिणाम-स्वरूप बाद में काम बिगड़ जाता है और केवल पश्चात्ताप करना ही अवशेष रह जाता है। इसलिए महापुरुषों का यह कथन