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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 6
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्व सामान्यतः जीव के संसूचक हैं' । निरन्तर प्राण के धारक होने के कारण प्राण, तीनों काल में रहने के कारण भूत, तीनों काल में जीवन युक्त होने से जीव और पर्यायों का परिवर्तन होने पर भी त्रिकाल में आत्मद्रव्य की सत्ता में अंतर नहीं आता, इस दृष्टि से सत्त्व कहलाता है, इस अपेक्षा से सभी शब्द जीव के ही परिचायक हैं । इस तरह समभिरूढनय की अपेक्षा से इनमें भेद परिलक्षित होता है 2 ।
इन सब में थोड़ा भेद भी है, वह यह है - प्राण से तीन विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय औरं चतुरिन्द्रिय प्राणी लिए हैं, भूत से वनस्पतिकायिक जीवों को लिया जाता है, जीव से पंचेन्द्रिय तिर्यंच एवं मनुष्यों का ग्रहण किया जाता है और सत्त्व से पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायुकाय को लिया जाता है ।
“परिनिर्वाण" शब्द का अर्थ सुख है, इस दृष्टि से अपरिनिर्वाण का अर्थ दुःख होता है और दिशा - विदिशा से द्रव्य और भाव- उभय दिशाओं को ग्रहण करना चाहिए।
इससे स्पष्ट हो गया कि प्रत्येक जीव सुख चाहता है और दुःख नहीं चाहता । फिर भी विभिन्न दुःखों का संवेदन करता है । इसका कारण यह है कि वह विविध आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होकर कर्म - बन्धन से आबद्ध होकर दुःखों का संवेदन करता है। परन्तु जीव आरम्भ समारम्भ - हिंसा के कार्य में क्यों प्रवृत्त होता है ? इसका कारण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं
1. गोयमा ! जम्हा आणापाणं तम्हा पाणेति वत्तव्वं सिया, जम्हाभूते भवति भविस्सति य तम्हा भूतिवत्तव्वं सिया, जम्हा जीवे जीवइ जीवत्तं आउथं च कम्मं उवजीवइ तम्हा जीवेत्ति वत्तव्वं सिया, जम्हा सत्ते सुहासुहेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्तेति वत्तव्वं सिया, जम्हा तित्तकडुयकसायअं बिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विन्नुत्ति वत्तव्वं सिया, वेदेइ य सुह- दुक्खं तम्हा वेदेति वत्तव्वं सिया । - भगवती सूत्र, श. 2, उ. 1 2. यदि वा शब्दव्युत्पत्तिद्वारेण समभिरूढ़नयमतेन भेदो द्रष्टव्यः तद्यथा सततप्राणधारणात् प्राणाः, कालत्रयभवनात् भूताः, त्रिकालजीवनात् जीवाः सदास्तित्त्वात् सत्त्वा इति । 3. प्राण द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः ।
जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वाः उदीरिताः ॥
- आचारांग सूत्र, टीका- 50