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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
महब्भयं दुक्खंत्ति बेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासु य ॥51॥
छाया - निर्ध्याय-प्रतिलेख्य प्रत्येकं परिनिर्वाणं सर्वेषां प्राणिनाम्, सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानाम्, असातम्, अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखमिति ब्रवीमि - त्रस्यन्ति प्राणिनः प्रदिशः दिशासु च ।
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पदार्थ - निज्झाइत्ता - चिन्तन करके । पडिलेहित्ता - देखकर । पत्तेयं - प्रत्येक जीव । परिनिव्वाणं- - सुख के इच्छुक हैं । सव्वेसिं - सर्व । पाणाणं - प्राणियों को । सव्वेसिं भूयाणं - सर्व भूतों की । सव्वेसिं जीवाणं - सर्व जीवों को। सव्वेसिं सत्ताणं - सर्व सत्त्वों को । अस्सायं - असाता । अपरिनिव्वाणं - अशांति । महब्भयं - महाभय है। दुक्खं दुःख रूप है । त्तिबेमि - इस प्रकार मैं कहता हूँ । दिसासु - दिशाओं में । य- - और । पदिसो - विदिशाओं में । पाणा- - ये प्राणी । तसंति - त्रास को प्राप्त होते हैं ।
मूलार्थ - शिष्य ! सकाय के सम्बन्ध में सम्यक् चिन्तन-मनन एवं पर्यावलोकन करके मैं तुम्हें कहता हूं कि प्रत्येक जीव सुख का इच्छुक है । अतः समस्त प्राणी, भूतजीव और सत्त्व सुखेच्छु हैं और सब को असाता - अशान्ति रूप महाभयंकर दुःख से भय है और दिशा-विदिशाओं में स्थित ये प्राणी इन प्राप्त होने वाले दुःखों से संत्रस्त हो रहें हैं ।
हिन्दी - विवेचन
संसार में प्रत्येक प्राणी सुखाभिलाषी है, दुःख से बचना चाहता है । फिर भी अपने कृत कर्म के अनुसार सुख - दुःख का स्वयं उपभोक्ता है। दुनिया में कोई प्राणी ऐसा नहीं है, जो एक के सुख-दुःख को भोग सके। सभी प्राणी अपने कृत कर्म के अनुरूप ही सुख-दुःख का संवेदन करते हैं । परन्तु अंतर इतना ही है कि सुख-संवेदन की अभिलाषा सबको रहती है । सुख सब प्राणियों को प्रिय लगता है, आनन्द देने वाला प्रतीत होता है, परन्तु दुःख कटु प्रतीत होता है । इसलिए दुनिया का कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता, वह दुःख से घबराता है, भयभीत होता है । फिर भी प्राणी दुःख से संतप्त एंव संत्रस्त होते हैं। सभी दिशा - विदिशाओं में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहां उन्हें दुःख का संवेदन न होता हो ।