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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 6 219 अनेक साधु संयम का परिपालन करते हुए भी देवगति का आयुष्य बांधते हैं और मनुष्य का आयुष्य भोग कर उपपात योनि में जन्मते हैं और स्वर्ग का आयुष्य पूरा करके फिर से गर्भज योनि में जन्मते हैं। इससे यह कहना कहां तक उचित है कि मंद बुद्धिवाला अतत्त्वज्ञ व्यक्ति ही इन उत्पत्ति स्थानों में जन्म लेता है? । ___ प्रस्तुत सूत्र में जो कहा गया है, वह एक अपेक्षा-विशेष से कहा गया है और वह अपेक्षा है-संसार-परिभ्रमण की। यह ठीक है कि सम्यग् दृष्टि, श्रावक एवं साधु भी उपपात, गर्भज जन्मों को ग्रहण करते हैं। परन्तु जब से उन्हें तत्त्व ज्ञान हो जाता है तब से वे संसार-परिभ्रमण को बढ़ाते नहीं हैं। यह सत्य है कि तत्त्वज्ञ जन्म लेते भी हैं। परन्तु तत्त्वज्ञ और अतत्त्वज्ञ के जन्म लेने में अंतर इतना ही है कि एक का संसार परिमित है और दूसरे का अपरिमित। जब से आत्मा ने सम्यक्त्व का संस्पर्श कर लिया, तब से उसे परिमित संसारी कहा है, संसार का छोर-किनारा उसके सामने आ गया है। यह ठीक है कि उसे पार करके अपने लक्ष्य स्थान तक पहुंचने में उसे कुछ समय लग सकता है और इसके लिए वह अनेक उत्पत्ति स्थानों में जन्म भी ग्रहण कर सकता हैं। परन्तु उसका जन्म ग्रहण करना संसार वृद्धि का नहीं, परन्तु संसार को घटाने का, कम करने का ही कारण है। ___ इसके विपरीत अतत्त्वज्ञ व्यक्ति का संसार अपरिमित है। उसके सामने अभी तक कोई स्पष्ट मार्ग नहीं है, जिस पर गति करके वह किनारे को पा सके। अभी तक उसे अपने लक्ष्य स्थान एवं किनारे का भी ज्ञान नहीं है। इसलिए उसका प्रत्येक कार्य, प्रत्येक कदम एवं प्रत्येक जन्म संसार को बढ़ाने वाला है, जन्म-मरण के प्रवाह को प्रवहमान रखने वाला है। तत्त्वज्ञ और अतत्त्वज्ञ में रहे हुए इसी अंतर को सामने रख कर प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि जो मंद है, अतत्त्वज्ञ है, वही संसार-परिभ्रमण को बढ़ाता है, बार-बार इन उत्पत्ति स्थानों में जन्म-मरण करता है। ... इस परिभ्रमण से बचने के लिए क्या करना चाहिए, इस प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार. कहते हैं मूलम्-निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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