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प्रथम अध्ययन : शस्त्रपरिज्ञा
षष्ठ उद्देशक
. पांचवें उद्देशक में वनस्पतिकाय का विवेचन किया गया। अब छठे उद्देशक में सूत्रकार त्रस जीवों का वर्णन करते हैं। त्रस जीवों के गति-त्रस और लब्धि-त्रस ये दो भेद हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव गति-त्रस हैं तथा तेजस्काय एवं वायुकाय तक के जीव लब्धि-त्रस हैं। तेजस्काय और वायुकाय स्थावर नाम-कर्म के उदय से स्थावर ही हैं। अन्य एकेन्द्रिय जीवों की तरह इनके भी एक स्पर्श इन्द्रिय होने से इन्हें भी स्थावर माना गया है, परन्तु इनमें भी एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने की गति देखी जाती है। इस लब्धि-शक्ति की अपेक्षा से इन्हें लब्धि-त्रस भी माना गया है। यों तो पानी भी गतिशील देखा जाता है, परन्तु उसकी गति स्वभाविक नहीं है, जिस ओर नीची जमीन होती है, वह उधर ही बहता है, अन्यत्र नहीं। वह अग्नि और वायु की तरह दशों दिशाओं में स्वतन्त्रतया गति नहीं कर सकता। इस अपेक्षा से तेजस्काय और वायुकाय को ही लब्धि-त्रस माना गया है।
उक्त लब्धि-त्रस में तेजस्काय का वर्णन चौथे उद्देशक में कर चुके हैं तथा वायुकाय का वर्णन सातवें उद्देशक में किया जाएगा। अतः प्रस्तुत उद्देशक में द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के गति-त्रसों का ही वर्णन किया जाएगा; प्रस्तुत उद्देशक का प्रथम सूत्र निम्नोक्त है
मूलम-से बेमि संतिमे तसा पाणा, तंजहा-अंडया, पोयया, जराउआ, रसया, संसेयया, संमुच्छिमा उब्भिया उववाइया, एस संसारेत्ति पवुच्चई॥9॥
छाया-सः (अह) ब्रवीमि सन्तिमे त्रसाः प्राणिनः, तद्यथा-अंडजा, पोत-जाः, जरायुजाः, रसजाः, संस्वेदजाः, समूर्छनजाः, उद्भिजाः, औपपातिक एष संसार इति प्रोच्यते।