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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पदार्थ-से-वह-मैं। बेमि-कहता हूँ। इमे-ये। तसा-त्रस। पाणा-प्राणी। संति-हैं। तंजहा-जैसे कि। अण्डया-अण्डे से उत्पन्न होने वाले कपोत आदि पक्षी। पोयया-पोतज रूप से जन्म ने वाले हाथी आदि। जराउआ-जरायु से वेष्टित उत्पन्न होने वाले गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और मनुष्य आदि प्राणी। रसयाविकृत रस से अत्यधिक खट्टी छाछ आदि में उत्पन्न होने वाले जीव। संसेयया-स्वेद पसीने से उत्पन्न होने वाले नँ, लीख आदि जीव। समुच्छिमा-सम्मूर्छिम उत्पन्न होने वाले–चींटी, मक्खी, मच्छर, बिच्छू आदि जीव। उब्भियया-उद्भिज-उद्भेद से उत्पन्न होने वाले पतंगे, वीर-बहूटी आदि। उववाइया-उपपात से उत्पन्न होने वाले देव और नारक जीव। एस-ये अष्ट प्रकार के त्रस जीव ही। संसारेत्ति-संसार हैं, अर्थात् इन त्रस जीवों को संसार। पवुच्चई-कहा जाता है।
मूलार्थ-हे जम्बू! त्रसकाय के सम्बन्ध में मैं तुमसे कहता हूं कि ये प्रत्यक्ष परिलक्षित होने वाले त्रस प्राणी अण्डे, पोत, जरायु, चलितरस, स्वेद-पसीने, सम्मूर्छन, उद्भेद और उपपात से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार उत्पन्न होने वाले त्रस जीवों को संसार कहा गया है। हिन्दी-विवेचन
आगमों में जीव के दो भेद किए गए हैं-1. सिद्ध और 2. संसार। संसारी जीव भी दो प्रकार के हैं-1. स्थावर और 2. त्रस। स्थावर जीवों के पांच भेद किए गए हैं-1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. तेजस्काय, 4. वायुकाय, और 5. वनस्पतिकाय। इनमें तेजस्काय और वायुकाय को लब्धि-त्रस भी माना है, परन्तु इनकी योनि स्थावर नाम-कर्म के उदय से प्राप्त होती है तथा इनके एक स्पर्श इन्द्रिय ही होती है, इसलिए इन्हें स्थावर माना गया है। त्रस जीवों के मुख्य चार भेद किए गए हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इनके अनेक भेद-उपभेद हैं-जिनका आगमों में विस्तार से वर्णन किया गया है।
त्रस का अर्थ है-"त्रस्यन्तीति त्रसः-त्रसनात्-स्पन्दनात् त्रसाः जीवनात्प्राणाधारणात् जीवाः त्रसा एव जीवाः त्रस जीवाः।” अर्थात् जो प्राणी त्रास पाकर उससे बचने के लिए चेष्टा करते हों, एक स्थान से दूसरे स्थान को आ-जा