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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
लज्जमाणा - लज्जा - मर्यादा, यहाँ पर लज्जावान का अर्थ है जो अपने प्राणों : की मर्यादा में रहता है और दूसरे के प्राणों की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता है । समुट्ठाए – सम्यक् प्रकार से उत्थित होकर ।
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अत्ता मुनि-सुता अमुनि - मुनि वही जो सम्यक् प्रकार से उत्थित है, जागरूक है, अप्रमत्त है। इससे विरोधी शब्द है मूच्छमाणे - अर्थात् तो मूर्च्छावान है । औदायिक भाव में परिणति मूर्च्छा है । क्षयोपशमिक भाव की जागृति उत्थान है। क्षायोपशमिक भाव से प्रशम भाव शांति आती है । औदयिक भाव से आसक्ति बढ़ती है ।
अणगार - सब में अपना स्वरूप देखना ।
संसार - औदयिक भावों की पर्यायों का परिवर्तन ही संसार है । क्षायोपशमिक भाव मुक्ति की ओर ले जाते हैं और सिद्धों की पर्याय क्षायिक है ।
रसिया- - रस में उत्पन्न होने वाले जीव ( स जीव) जैसे - दही - रात्रि का दही प्रथम प्रहर में ले सकते हैं। उसके बाद नहीं और सुबह का दही दही रूप में जम जाने पर अगले दो पहर तक ले सकते हैं, उसके आगे नहीं । रात के भिगोये हुए खटाई लाए हुए व्यंजन भी विकृत रस युक्त हो जाते हैं ।
केल