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________________ 208 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध होते हैं। से हु मुणी-वही मुनि। परिण्णायकम्मे-परिज्ञाताकर्मा है। तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूँ। मूलार्थ-जो व्यक्ति द्रव्य और भाव शस्त्र से वनस्पतिकाय का आरंभ करते हैं, वे इन आरंभों से अपरिज्ञात होते हैं और जो वनस्पति का आरम्भ नहीं करते, वे इन आरंभों से परिज्ञात होते हैं। अतः वे बुद्धिमान पुरुष न तो स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों का आरम्भ करते हैं, न अन्य व्यक्ति से आरम्भ कराते हैं और न आरंभ करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन ही करते हैं। जिस मुमुक्षु ने इन आरम्भ-समारम्भ के कार्यों को भली-भांति जान कर त्याग दिया है, वही मुनि परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मैं कहता हूँ। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या पृथ्वीकाय, अप्काय के अध्ययन के अंतिम सूत्र की व्याख्या में विस्तार से कर चुके हैं। अतः यहां चर्वित-चर्वण करना उपयुक्त न समझ कर विशेष विवेचन नहीं कर रहे हैं। पाठक यथास्थान देख लें। त्ति बेमि की व्याख्या पूर्ववत् समझें। ॥शस्त्रपरिज्ञा पंचम उद्देशक समाप्त॥ . .
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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