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अध्यात्मसार : 5
मूलम्-एस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्ते अणाणाए॥1/5/43
मूलार्थ-शब्दादि पाँच विषय-रूप को लोक कहा गया है। जो जीव मन-वचन और काय को विषयों से गोप कर नहीं रखता है, अर्थात् जो व्यक्ति शब्दादि विषयों में अनुरक्त रहता है, वह जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा में नहीं है।
जो जीव मन-वचन एवं काया को गोपन करके नहीं रखता, वह भगवान की आज्ञा में नहीं है। जब भी किसी के चारित्र की पडिवाई होती है, तब वह इन-इन अवस्थाओं से गुजरता है। ये तीन सूत्र इसी संबंध में हैं।
जो साधु अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं करता, वह भगवान की आज्ञा में नहीं है। निम्न तीन दृष्टिकोण से यह तीन प्रकार है
1. मन-वचन-काया को वश में करना जिसका लक्ष्य ही नहीं है। जिसको मनोगुप्ति ५ में रस ही नहीं है, जो केवल मन-वचन-काया को विषयों में संलग्न रखना
चाहता है, जिसका उद्देश्य ही विषयों का विस्तार है, जिसकी विषयेच्छा,
प्रबल है, वह प्रथम कोटि का निम्न स्तरीय साधु है। 2. मन का गोपन तो करना चाहता है, विषयों से बाहर निकलना भी चाहता
है, इन्द्रियों को वश में करना जिसका लक्ष्य भी है, परन्तु उसके पास ऐसा - कोई उपाय नहीं है, जिससे कि गुप्ति की साधना की जा सके, वह मध्यम
है; पहले से अच्छा है, क्योंकि इच्छा है तो उपाय भी ढूँढेगा और उपाय मिलेगा भी। 3. जो उपाय को जानता है। मन-वचन-काया के गोपन की विधि भी जिसके
पास है, महापुरुषों की संगत में रहकर सीखा है, परन्तु वैसा आचरण नहीं करता (अपेक्षा से) मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण प्रमाद करता है
और प्रमादवश इन्द्रियों के वशवर्ती होकर चलता है। यह तीसरे प्रकार का साधु है।