________________
प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5
207
इस तरह यह स्पष्ट हो गया कि वनस्पति सजीव है। अतः उसका आरम्भ करने से पाप-कर्म का बन्ध होगा और संसार-परिभ्रमण बढ़ेगा, इसलिए साधु को उसके आरम्भ-समारम्भ का त्याग करना चाहिए। इसी बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं_ मूलम्-एत्थं सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति, एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति, तं परिण्णाय मेहावी व सयं वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते वणस्सतिसत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे, त्ति बेमि॥48॥ - छाया-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाताः भवन्ति। अत्र शस्त्रमसमारम्भमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति। तत्परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वनस्पति शस्त्र समारभेत्, नैवान्यैर्वनस्पति शस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात् । यस्यैते वनस्पतिशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि।
पदार्थ-एत्थ-इस वनस्पनिकाय के विषय में। सत्थं-शस्त्र का। समारंभमाणस्स-समारंभ करने वाले को। इच्चेते-ये सब। आरंभा-आरंभ-समारंभ। अपरिण्णाया-अपरिज्ञात। भवंति-होते हैं। एत्थ-इन वनस्पतिकाय के विषय में। सत्थं-शस्त्र का । असमारम्भमाणस्स-समारम्भ नहीं करने वाले को। इच्चेते आरम्भा-ये सब आरम्भ । परिण्णाया-भवन्ति-परिज्ञात होते हैं। तं परिण्णाय-उस आरम्भ का परिज्ञान करके। मेहावी-यह बुद्धिमान पुरुष। णेव सयं-न तो स्वयं । वणस्सइसत्थं-वनस्पति शस्त्र का। समारंभेज्जा-आरम्भ करे। णेवण्णेहि-न अन्य से। वणस्सइसत्थं-वनस्पति शस्त्र का। समारंभावेज्जा-समारम्भ करावे। णेवण्णे-और न अन्य व्यक्ति का, जो। वणस्सइ सत्थ समारंभंते-वनस्पति शस्त्र का आरम्भ कर रहा है। समणुजाणेज्जा-समर्थन ही करे। जस्सेते-जिसको ये। वणस्सइसत्थंसमारंभा-वनस्पति शस्त्र समारम्भ। परिण्णाया भवंति-परिज्ञात