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________________ 206 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध बीज अपने अपने पूर्व से संबद्ध हैं, और वे उनसे आहार लेकर अपने शरीर रूप में परिणत करते हैं। इस तरह वनस्पतिकाय क्रम-पूर्वक आहार करती है। जैसे मनुष्य थाली में से भोजन का एक ग्रास हाथ में उठाकर मुंह में रखता है, फिर दांत चर्वण करते हैं, जिह्वा आदि अवयव उसे गले में पहुंचाते हैं, वहां से नीचे उतर कर पेट में पहुंचता हैं और वहां उसका रस, खून, वीर्य आदि पदार्थ बनकर शरीर में यथास्थान पर पहुंच जाते हैं, उसी तरह वनस्पतिकाय के जीव भी मूल के द्वारा पृथ्वी से आहार ग्रहण करते हैं, फिर मूल से स्कंध और स्कंध से शाखा-प्रशाखा, पत्र पुष्प, फल और अपने-अपने पूर्व से ग्रहण कर लेते हैं। इस तरह वनस्पतिकायिक जीव भी आहार करते हैं और उसी के आधार पर अपने शरीर का निर्माण करते हैं। .. मनुष्य और वनस्पतिकाय दोनों का शरीर अनित्य एवं अशाश्वत-अस्थिर है। दोनों के शरीर में चय-उपचय होता रहता है। प्रतिकूल एवं अनुकूल आहार एवं वातावरण से दोनों के शरीर में ह्रास एवं परिपुष्टता देखी जाती है। दोनों के शरीर में अनेक प्रकार के परिवर्तन भी होते रहते हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया कि वनस्पति में भी चेतना है। आज के वैज्ञानिक युग में तो किसी प्रकार के संदेह को अवकाश ही नहीं रहा। भारतीय प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस ने वैज्ञानिक साधनों से जनता एवं वैज्ञानिकों को वनस्पति की सजीवता को प्रत्यक्ष दिखा दिया था। इससे जैनागम की मान्यता परिपुष्ट होती है और साथ में यह भी प्रमाणित होता है कि जैनागम सर्वज्ञ के उपदिष्ट हैं। डॉ. बोस ने भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट बात को वैज्ञानिक साधनों से प्रत्यक्ष दिखाकर विश्व के वैज्ञानिकों को वनस्पति में चेतनता मानने के लिए बाध्य कर दिया, इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। 1. से नूणं भन्ते! मूला मूल जीव फुडा, कंदा कंद जीव फुडा जाव बीया बीय जीव फुडा? हंता गोयमा! मूला मूल जीव फुडा जाव बीया बीय जीव फुडा। जइणं भंते! मूला मूल जीव फुडा जाव बीया बीय जीव फुडा कम्हा णं भंते! वणस्सइ काइया आहारेंति कम्हा परिणामेति? गोयमा मूला मूल जीव फुडा पुढवि जीव पडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति। एवं जाव बीया बीय जीव फुडा फल जीव पडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति। भगवती सूत्र, शतक 7, उद्देशक 3
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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