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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5 होते हैं। वे अपनी जड़ों में गाड़े हुए धन को सुरक्षित रखने के लिए अपनी शाखा प्रशाखाओं को फैलाकर उस स्थान को आवृत्त कर देते हैं । और वर्षा काल में मेघ की गर्जना सुनकर तथा शिशिर ऋतु में शीतल वायु का संस्पर्श पाकर अंकुरित हो उठते हैं। बांस का पौधा भी मेघ की गर्जना सुनकर अंकुरित होता है । और मद - विकृत कामिनी के पैर का संस्पर्श पाकर अशोक वृक्ष हर्षातिरेक से पल्लवित एवं पुष्पित होता है, पुरुष के हाथ का संस्पर्श पाते ही लाजवन्ती का सुकोमल पौधा अपने आप को संकोच लेता है, उसके पत्ते सिकुड़ जाते हैं । इस बात को भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने वैज्ञानिक साधनों के द्वारा प्रत्यक्ष में दिखा दिया था कि कुछ पौधे अपनी प्रशंसा से आकर्षित होकर प्रफुल्लित हो उठते हैं और निन्दा - तिरस्कार के शब्दों से प्रभावित होकर मुर्झा जाते है । ये सब क्रियाएं वनस्पति में भी ज्ञान के अस्तित्व को सिद्ध करती हैं, क्योंकि ज्ञान के अभाव में ऐसा हो नहीं सकता। इससे वनस्पति में भी ज्ञान है, ऐसा मानना चाहिए । 205 मनुष्य के हाथ-पैर आदि किसी भी अंग - उपांग को काट देते हैं, तो वह अंग मुर्झा जाता है। उसी तरह वनस्पति का काटा हुआ हिस्सा भी कुम्हला जाता है, म्लान हो जाता है। इस तरह छेदन क्रिया से भी दोनों के अंगों की समान स्थिति होती है । आहार की अपेक्षा से भी दोनों में समानता है । जैसे मनुष्य को समय पर पौष्टिक एवं अच्छा आहार मिलता रहे तो स्वस्थ एवं बलवान रहता है, उसी प्रकार वनस्पति को भी अनुकूल हवा, पानी, प्रकाश, मिट्टी एवं खाद मिलती रहे तो वह भी पल्लवित - पुष्पित एवं विकसित होती रहती है । प्रतिकूल आहार मिलने पर उसे भी रोग हो जाता है और उस रोग को औषध के द्वारा मिटाया भी जाता है । प्रश्न हो सकता है कि मनुष्य तो आहार करता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु वनस्पति स्पष्ट रूप से आहार करती हुई नहीं दीखती । फिर वह आहार कैसे करती है ? इसका समाधान करते हुए आगम में बताया गया है कि वनस्पति का मूल पृथ्वी से संबद्ध है, अतः वह पृथ्वी से आहार लेकर उसे अपने शरीर के रूप में परिणमन करती है। मूल से स्कन्ध संबद्ध है, इसलिए वह मूल से आहार ग्रहण करके उसे अपने शरीर के रूप में परिणत करती है । इसी तरह शाखा, प्रशाखा, पत्ते, फूल, फल एवं
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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