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________________ 204 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध हिन्दी - विवेचन प्रस्तुत सूत्र में वनस्पति की सजीवता को सिद्ध करने के लिए उसकी मनुष्य शरीर के साथ तुलना की गई है और यह स्पष्ट कर दिया है कि जो धर्म या गुण मनुष्य के शरीर में पाए जाते हैं, वे ही धर्म वनस्पति के शरीर में भी परिलक्षित होते हैं। मनुष्य शरीर की चेतना प्रायः सभी विचारकों को मान्य है । अतः उसमें उपलब्ध समस्त लक्षण वनस्पति में भी स्पष्ट दिखाई देते हैं और ये लक्षण उन्हीं में पाए जाते हैं, जो सजीव हैं। निर्जीव पदार्थों में ये गुण नहीं पाए जाते। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन गुणों का चेतना के साथ अविनाभाव संबन्ध है । क्योंकि जिस शरीर में चेतना होती है, वहां उक्त लक्षणों का सद्भाव होता है और जहां चेतना नहीं होती है, वहां उनका भी अभाव होता है । यथा - जहां धूम होता है वहां अग्नि अवश्य होती है । इसी न्याय से पर्वत या दूरस्थ स्थान पर स्थित अग्नि न दिखाई देने पर भी धूम को देख कर अनुमान - प्रमाण से यह निश्चय कर लेते हैं कि उस स्थान पर अग्नि है । क्योंकि धूम और अग्नि का साहचर्य है, अविनाभाव संबन्ध है, अर्थात् यों कहिए कि धू का अस्तित्व अग्नि के बिना नहीं होता। इसी तरह उक्त लक्षणों एवं सजीवता का अविभाज्य सम्बन्ध है । जहाँ उक्त लक्षण होंगे, वहाँ सजीवता अवश्य होगी। इसी न्याय से वनस्पति की सजीवता को हम भली-भांति जान एवं समझ सकेंगे । हम देखते हैं कि मनुष्य माता के गर्भ से जन्म धारण करता है और जन्म के पश्चात् प्रतिक्षण अभिवृद्धि करता हुआ बाल, युवा एवं वृद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। उसी तरह वनस्पति भी योग्य मिट्टी, पानी वायु एवं आतष का संयोग मिलने पर बीज में से अंकुरित होती है और क्रमशः बढ़ती हुई बाल्य, यौवन एवं वृद्ध अवस्था को प्राप्त होती है। पेड़-पौधों एवं लताओं में यह क्रम स्पष्ट दिखाई देता है । मनुष्य और वनस्पति दोनों के शरीर में चेतना भी समान रूप से है । चेतना का लक्षण या गुण ज्ञान है और ज्ञान का अस्तित्व दोनों में पाया जाता है। कुछ पौधों की क्रियाओं के सम्बन्ध में देखते-पढ़ते हैं, तो उससे उनमें भी ज्ञान के अस्तित्व का स्पष्ट आभास मिलता है। जैसे धात्री और प्रपुन्नाट आदि वृक्ष सोते भी हैं और जागृत भी
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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