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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5 203 पिचयापचयिकम्, एतदपिचयापचयिकम्, इदमपि विपरिणामधर्मकम्, एतदपि विपरिणामधर्मकम्। पदार्थ-से-तत्त्व का परिज्ञाता। बेमि-मैं कहता हूँ। इमंपि जाइधम्मयं-यह मनुष्य शरीर जैसे जाति-जन्म धर्म वाला है, ठीक उसी तरह। एयंपि जाइधम्मयं-यह वनस्पतिकायिक शरीर भी जन्म धर्म वाला'। इमंपि वुड्ढिधम्मयं-जैसे मनुष्य शरीर वृद्धि धर्म वाला है, वैसे ही। एयपि वुड्ढिधम्मयं-वनस्पति का शरीर भी वृद्धि धर्म वाला है। इमंपि चित्तमंतयं-जैसे मनुष्य शरीर चेतना युक्त है, वैसे ही। एयंपि चित्तमंतयं-वनस्पति का शरीर भी चेतना संयुक्त है। इमंपि छिण्णं मिलाइ-जैसे मनुष्य का छेदन किया हुआ-काटा हुआ शरीर मुा जाता है, वैसे ही। एयंपि छिण्णं मिलाइ-वनस्पति का छेदन किया हुआ शरीर मुझ जाता है। इमंपि आहारगं-जैसे मनुष्य आहार करता है, वैसे ही। एयंपि आहारगं-वनस्पतियां भी आहार करती हैं। इमंपि अणिच्चयं-जिस प्रकार मनुष्य का शरीर अनित्य है, उसी तरह। एयंपि अणिच्चयं-वनस्पति का शरीर भी अनित्य है। इमंपि असासयंजिस प्रकार मनुष्य का शरीर अशाश्वत है; उसी तरह। एयपि असासयं-वनस्पति का शरीर भी अशाश्वत है। इमंपि चओवचइयं-जिस प्रकार मनुष्य का शरीर चय और उपचय वाला है, उसी तरह। एयपि चओवचइयं-वनस्पति का शरीर भी चय-उपचय युक्त है। इमंपि विपरिणाम धम्मयं-जैसे मनुष्य का शरीर विपरिणाम धर्म वाला-अनेक तरह के परिवर्तनों से युक्त है, वैसे ही। एयंपि विपरिणामधम्मयं-वनस्पति का शरीर भी परिणमनशील है, अर्थात् विभिन्न प्रकार से बदलने वाला है। ___मूलार्थ-हे जम्बू! वनस्पतिकाय में प्रत्यक्ष परिलक्षित होने वाली चेतना के विषय में अब मैं तुम से कहता हूं-जिस प्रकार मनुष्य का शरीर जन्म धारण करने वाला है, बढ़ता है, चेतना युक्त है, छेदने या काटने पर मुझ जाता है, आहार करता है, अनित्य और अशाश्वत है, चय-उपचय वाला है, परिवर्तनशील है; ठीक उसी तरह वनस्पतिकाय का शरीर भी उक्त सभी धर्मों से युक्त है। 1. प्रस्तुत प्रकरण में प्रथम ‘अपि' शब्द यथा के अर्थ में और दूसरा ‘अपि' शब्द समुच्चय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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