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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध करते हैं, दूसरों से कराते हैं तथा आरंभ करते हुए व्यक्ति का समर्थन करते हैं। उनके लिए यह आरंभ अहित और अबोध का कारण होता है, इस प्रकार स्वयं भगवान या अनगारों के पास से वनस्पतिकायिक आरंभ के अनिष्ट फल को सुनकर सम्यक् श्रद्धा के बोध को प्राप्त हुआ व्यक्ति यह जान लेता है कि यह वनस्पतिकाय का आरंभ अष्ट कर्मों की गांठ रूप है, मोह रूप है, मृत्यु का कारण है और नरक का कारण है।
फिर भी विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति विभिन्न शस्त्रों के द्वारा और वनस्पति कर्म से वनस्पतिकायिक जीवों का तथा उसके आश्रय में स्थित अन्य त्रस एवं स्थावर अनेक जीवों की हिंसा करता है। हिन्दी-विवेचन ___ इस विषय का वर्णन पृथ्वीकाय एवं अप्काय के प्रकरण में विस्तार से कर चुके हैं, उसीके अनुसार यहां भी समझना चाहिए, अन्तर इतना है कि पृथ्वी एवं अप् की जगह वनस्पति समझना चाहिए।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वनस्पति सजीव है। फिर भी कुछ लोगों की समझ में नहीं आता। इसलिए सूत्रकार कुछ हेतु देकर वनस्पति की सजीवता प्रमाणित करते हुए कहते हैं__ मूलम्-से बेमि इमंपि जाइधम्मयं, एयपि जाइधम्मयं, इमंपि वुड्डिधम्मयं, एयंपि वुड्डिधम्मयं, इमंपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं इमंपि छिण्णं मिलाइ, एयंपि छिण्णं मिलाइ, इमंपि आहारगं, एयंपि आहारगं, इमंपि अणिच्चयं एयंपि अणिच्चयं, इमंपि असासयं एयंपि असासयं, इमंपि चओवचइयं एयंपि चओवचइयं, इमंपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं॥47॥
छाया-सः [अहं] ब्रवीमि इदमपि जातिधर्मकम्, एतदपि जातिधर्मकम्, इदमपि वृद्धिधर्मकम्, एतदपि वृद्धिधर्मकम्, इदमपि चितवत्, एतदपि चितवत्, इदमपि छिन्नं म्लायति, एतदपि छिन्नं म्लायति, इदमप्याहारकम्, एतदप्याहारकम्, इदमप्यनित्यम्, एतदप्यनित्यम्, इदमप्याशाश्वतम्, एतदप्याशाश्वतम्, इदम