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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5
की अभिलाषा से। जाई-मरण-मोयणाए-जन्म-मरण से मुक्त होने की आकांक्षा से। दुक्खपडिघायहेउं-दुःख से छुटकारा पाने हेतु। से-वह। सयमेव-स्वयमेव। वणस्सइसत्थं-वनस्पति के शस्त्र से। समारंभइ- वनस्पतिकाय का समारंभ करता है। वा-अथवा। अण्णेहिं-अन्य से। वणस्सइ-सत्थं-वनस्पति शस्त्र से। समारम्भावेइ-समारंभ करता है। वा-अथवा। वणस्सइ सत्थं-वनस्पति शस्त्र से। समारंभमाणे-आरम्भ करने वाले। अण्णे-अन्य व्यक्ति को। समणुजाणइअच्छा जानता है। तं-यह वनस्पतिकाय का आरंभ। से-उसको। अहियाएअहितकर है। तं-यह। से-उसको। अबोहीए-अबोध का कारण है। से-वह। तं-उस आरम्भ के स्वरूप को। संबुज्झमाणे-भली-भांति समझकर। आयाणीयंसम्यग् दर्शन-ज्ञान और चारित्र को। समुट्ठाय-स्वीकार करके। भगवओ-भगवान। वा-अथवा। अणगाराणं-अनगारों के। अन्तिए-समीप में। सोच्चा-सुनकर। इहं-इस लोक में। एगेसिं-किसी-किसी व्यक्ति को। णायं भवति-ज्ञात हो जाता है कि। एस-यह. आरंभ। खलु-निश्चय रूप से। गंथे-अष्ट कर्मों की गांठ है। एस खलु-यह निश्चय ही। मोहे-मोहे रूप है। एस खलु-यह निश्चय ही। मारे-मृत्यु का कारण है। एस खलु-यह निश्चय ही। णरए-नरक का कारण है। इच्चत्थं-इस प्रकार अर्थ-विषय-वासना में। गड्ढिए-आसक्त बना हुआ। लोए-लोक-प्राणी समूह। जमिणं-जिससे कि यह। विरूवरूवेहि-विभिन्न प्रकार के। सत्थेहि-शस्त्रों से वणस्सइ-कम्मसमारंभेणं-वनस्पति-कर्म समारंभ से। वणस्सइ-सत्थं-वनस्पति शस्त्र से। समारंभमाणे-आरम्भ करता हुआ। अण्णे-अन्य । अणेगरूवे-अनेक प्रकार के। पाणे-प्राणियों की। विहिंसति-हिंसा करता है।
मूलार्थ-हे जम्बू! तू सावध-अनुष्ठान से लज्जावान विभिन्न मत वाले व्यक्तियों को देख। जो अपने आपको अनगार कहते हुए भी विभिन्न शस्त्रों से तथा वनस्पति-कर्म-समारंभ से वनस्पतिकायिक जीवों की तथा वनस्पति के आश्रय में रहे हुए अन्य द्वीन्द्रियादि प्राणियों की हिंसा करते हैं। भगवान ने अपने विशिष्ट ज्ञान से यह प्रतिपादन किया है कि वे नाशवान जीवन के लिए, प्रशंसा-मान-सम्मान एवं पूजा-प्रतिष्ठा पाने की अभिलाषा से, जन्म-मरण से मुक्त होने की आकांक्षा से तथा मानसिक एवं शारीरिक दुःखों से छुटकारा पाने हेतु स्वयं वनस्पतिकाय का आरंभ